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किरण ३]
श्रा० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश
3-
या
'तदनेन न्यायवातिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य नन्दने दो एक जगह' और भी 'पूर्ववत् आदि अनुत्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यात प्रतिपत्तव्यमिति, लिङ्गलक्षणाना- मानसूत्रके त्रिसूत्रीकरणरूप व्याख्यानका उल्लेख किया मन्वयित्वादीनां त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामिव न प्रयोजनम् ।' है और उसका समालोचन किया है। उसपरसे भी
विद्यानन्दको न्यायवात्तिककारका ही मत-निरसन इस उल्लखमे दीका' शब्द अधिक है और वह
अभिप्रेत मालूम होता है । अतः उक्त उल्लेखमें विद्यालेखककी भूलसे ज्यादा लिखा गया जान पड़ता
। नन्दके द्वारा दिया गया 'टोका' शब्द नहीं होना है-प्रन्थकारका स्वयंका दिया हुआ वह शब्द
चाहिए---प्रतिलेखकके द्वारा ही.वह भ्रान्तिसे अधिक प्रतीत नहीं होता, क्योकि यदि ग्रन्थकारको 'टीका'
लिखा गया जान पड़ता है। प्रतिलेखक न्यूनाधिक शब्दके प्रदानसे वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्यटीका
लिख जाना जैसी भूले बहुधा कर जाते है। विवक्षित हो तो उनका आगेका हनुम्प कथन सङ्गत
___ अथवा ग्रन्थकारका भी यदि दिया हुआ 'टीका' नहीं बैठता । कारण, अन्वयी, व्यतिरेकी और
शब्द हो तो उसमें उन्हें तात्पर्यटीका विवक्षित रही अन्वयव्यतिरंकी इन तीन हेतुओंका कथन पक्ष
हो; सो बात नही मालूम होती क्योंकि उनके उत्तरधमत्व, सपक्षसत्व और विपक्षाव्यावृत्ति इन तीन
ग्रन्थका सम्बन्ध न्यायवार्तिकसे ही है-तात्पर्यटीकाहेतुओंके कथनकी तरह न्यायवात्तिककार उद्यात
से नहीं। अतः 'न्यायवार्तिकटीका' शब्दका 'न्यायकरका अपना मत है-उद्योतकरने ही 'पूर्वच्छपवन'
वात्तिककी टीका' ऐसा अर्थ न करके 'न्यायवार्तिकआदि अनुमाननूत्रका त्रिसूत्रीकरणरूपसे व्याख्यान
रूप टीका' ऐसा अर्थ करना चाहिए, क्योंकि न्यायकिया है अथांत उन्हान उक्त अनुमानमत्रक तान वात्तिक भी न्यायसूत्र और न्यायभाष्यकी टीका व्याख्यान प्रदर्शित किये है,' तात्पर्यटीकाकार वाच- (ब्याख्या) है। इस तरह कोई असङ्गति अथवा स्पति मिश्रने नहीं, बल्कि वाचस्पति मिश्र स्वयं उन
असम्बद्धता नहीं रहती। अतएव विद्यानन्दके ग्रन्थोंव्याख्यानोंको उद्यातकरका मत बतलात ह । विद्या- में वाचस्पति मिश्रका खण्डन न होनेसे व उनके पूव
__ बर्ती सिद्ध होते हैं। वाचस्पति मिश्रका समय ई. १ यथा-(क) निविमिति । अन्वयी, व्यतिरेकी, अन्वय- मन ८४१ निश्चित है। अत. विद्यानन्दकी उत्तराव्यतिरेको च । तत्रान्वयव्यतिरेकी विवक्षिततजातीयोपपत्ती ववि ई० मन८४० होना चाहिए । वाचस्पति मिश्रक विपक्षावृत्तिः,यथा अनित्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्वं सत्य- समकालीन न्यायमजरीकार जयन्तभद्र भी हए हैं। म्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात् घटवदिति। -पृ०४६ । उनका भी विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें कोई समालोचन
उपलब्ध नहीं होता । यदि विद्यानन्द उनके उत्तर(ख) अथवा विविधमिति । लिङ्गस्य प्रसिद्ध-सदसन्दि
कालीन हात तो वे न्यायदर्शनके (इन वाचस्पतिमिश्र ग्धतामाह । प्रसिद्ध मति पक्षे व्यापकम्, मदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्धमिप्ति सजातीयाविनाभावि ।'-पृ० ४६।
और जयन्तभट्ट जैसे) प्रमुख विद्वानोंका भी प्रभा
चन्द्रकी तरह आलोचन करते। (ग) 'अथवा त्रिविमिति नियमार्थम् । अनेकधा
इस तरह पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंके समालोचन और भिन्नस्यानुमानस्य त्रिविधेन पूर्ववदादिना संग्रह इति नियम
उत्तरवर्ती प्रन्थकर्ताओंके असमालोचनके आधारसे दर्शयति । -पृ. ४६ ।
विद्यानन्दका समय ई० सन् ७७५ से ई० सन् ८४० २ यथा--'तदेवं म्यमतेन सूत्रं म्याख्याय भाष्यकृन्मतेन निर्धारित होता है। ग्याचष्टे ।' पृ० १७४, 'स्वमतेन व्याख्यान्तरमाह
इस समयकी पुष्टि दूसरे अन्य प्रमाणोंमे भी अथवा....'' पृ. १७८, विविधपदस्य तात्पर्यान्तरमाह - अथवेति ।-पृ० १७६ ।
१ तत्वार्यश्लोक.पृ. २०५, प्रमाणपरी पृ०७५ ।