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अनेकान्त
[वषे १०
६. अष्टसहस्री (पृ०१८) मे मण्डनमिश्रका नामो- २. प्रशस्तपादभाष्यपर क्रमशः चार प्रसिद्ध ल्लेखपूर्वक आलोचन किया गया है और श्लोकवा- टीकाएँ लिखी गई है-पहली व्योमशिव की व्योमत्तिक (पृ०६४) में मण्डनमिश्रके 'ब्रह्ममिद्वि' ग्रन्थसे वती, दुसरी श्रीधरकी न्यायकन्दली, सीमरी उदयन'पाहुर्विधातृ प्रत्यक्षा पद्यवाक्यको उद्धृत करके कद की किरणावली और चौथी श्रीवत्साचार्य की न्यायर्थन किया गया है। शङ्कराचार्यके प्रधान शिष्य लीलावती। श्रा. विद्यानन्दने इन चार दाकाओंमे मरेश्वरके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक (३-५) पहली व्योमशिवकी व्योमवती टीकाका तो निरसन मे 'यथा विशुद्धमाकाशं 'नथेदममल ब्रह्म य दो (४३, किया है, परन्तु अन्तिम तीन टीकाओंका उन्होंने ४४ वें) पद्य अष्टमहस्री (पृ०६३) में बिना नामो- निरमन नहीं किया। श्रीधरने अपनी न्यायकन्दली ल्लेखक और अष्टसहस्री (पृ० १६१ ) में 'यदुर टीका शक सं०६।३, ई०६६१में बनाई है । अतः बृहदारण्यकवात्तिक' शब्दोंक उल्लेखपूर्वक उक्त श्रीधरका समय इ० सन ६६१ है। और उदयनने वात्तिक ग्रथन्स ही 'आत्मापि पदिदं ब्रह्म', 'ग्रान्मा अपनो लक्षणावली शकसं० १०६, इ०सन १८४ में ब्रह्मति पारोच्य- ये दो पा उदधत किये गये है। समाप्त की है । इलिये उदयनका ममय ई० सन मण्डनमिश्रका' इ०६७० से ७२० और सरेश्वर ६८४ है। अतण्व विद्यानन्द ई० मन ८४ के बाद के मिश्रका ई० ७८८ ८२० समय समझा जाता है। नहीं है। अतः आ० विद्यानन्द इनके पूर्ववर्ती नहीं है-सुरे- ३. उद्योतकर (ई० ६००) के न्यायवार्त्तिकपर श्वर मिश्रके प्रायः समकालीन है. जैसा कि आगे वाचस्पति मिश्र (ई०८४१) ने तात्पर्यटीका लिखी सिद्ध किया जावेगा। विद्यानन्दक ग्रन्थोंमे सरेश्वर- है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (प्र. २०६. मिश्र (८-०ई०) के उत्तरवर्ती किसी भी २८३,२८४ आदि) मे न्यायभाप्यकार और न्यायग्रन्थकारका खण्डन न होनम मरेश्वर मिश्रका समय वार्तिककारका ता दशों जगह नामोल्लेख करके विद्यानन्दकी प्रविधि समझना चाहिए।
खण्डन किया है । परन्तु तात्पर्यटीकाकारके किसी अब हम आ. विद्यानन्द की उत्तरावधिपर
भी पदवाक्यादिका कहीं भी खण्डन नहीं किया विचार करते है।
है। हाँ, एक जगह (तत्त्वार्थश्लो० पृ०२०६ मे) १. वादिराजमृग्नि अपने पाश्वनाथचरित
'न्यायवात्तिकटीकाकार' के नामसे उनके व्याख्यान(श्लोक २८) और न्यार्यावनिश्चयविवरण (प्रश
का प्रत्याख्यान हो जानेका उल्लेख जरूर मिलता है स्तिश्लो० २) में आ० विद्यानन्दकी स्तुति की है।
और जिसपरसे मुझे यह भ्रान्ति' हई थी कि वादिराज सूरिका समय इ. सन् १०२५ सुनिश्चित
विद्यानन्दने वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्यटीकाका भी है। अतः विद्यानन्द ई० सन् १०२५ के पूर्ववर्ती
खण्डन किया है। परन्तु उक्त उल्लेखपर जब मैन हैं-पश्चाद्वर्ती नहीं।
गहराई और सूक्ष्मतासे एकसे अधिक बार विचार
किया और ग्रन्थोंके मन्दोंका बारीकीसे मिलान ५ देखो, वृहती द्वितीय भागको प्रस्तावना। किया तो मुझे वह उल्लेख अभ्रान्त प्रतीत नहीं
२ गोपीनाथ कविराज-'अच्युत' वर्ष ३, अङ्ग हुआ । वह उल्लख निम्न प्रकार है:पृष्ठ २५-२६ ।
१ 'अधिकदशोत्तरनवशतशाकाब्दे न्यायकन्दली रचिता। न्यायधिनिश्चयधिवरणाके मध्यमं भी वादिराजस. श्रीपाण्डदासयाचित-भट्ट-श्री-श्रीधरेण्यम्॥" रिने विद्यानन्दका स्मरण किया है। दम्बा, आप्तपरीक्षा,
२ देखो, न्यायदीपिका प्रस्तावना पृ०६। प्रस्तावना (लि.) पृ. ४२ का फुटनोट ।
३ विद्यानन्द का समय' अनेकान्त व ६, किरण ६-७॥