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________________ श्री पण्डितप्रवर दौलतगमजी और उनकी माहित्यिक रचना उद्वारके माथ उनकी हिन्दी टीकाओंके कगन तथा वांछित स्थान पहुंच जाता । अब अम्थानकसे उठा उन्हें अन्यत्र भिजवानका प्रयत्न भी करते थे। ममय- भी नहीं जाय है। तुम्हारे पिताक प्रमादार में मारादि अध्यात्मग्रन्थोंकी नत्त्वचर्चा में उन्हें बड़ा यह शरीर नानाप्रकार लड़ापा था मो अब कुमित्र रम आता था, और वे उममे आनन्दविभोर हो की न्याइ दुःख का कारण होय गया, पूर्वे मुझे उठत थे । मं० १८२१ की लिम्वी एक निमंत्रण पत्रिका वैरीनिक विदारने की शक्ति हुती मो अब लाठीके म उनकी कर्त्तव्यपगयणता और लगनका महज ही अवलम्बनकरि महाकटम फिर हूं। बलवान पुरुप आभाम हो जाता है। व विद्वानोंको कार्यके लिये निकरि वींचा जो धनुष वा ममान वक्र मेरी पीठ हो म्वयं प्रेरित करने थे और दृमगेम भी प्रेरणा दिल- गई है अर मस्तक केश अथिममान श्वेत होय वान थे । उनकी प्रेरणाके फलस्वरूप जो मधुरफल गये है अर मेरे दान गिर गये, मानो शरीर का लंग उमम पाठक परिचित ही है। आताप देख न सके । है गजन ! मेरा ममम्त उत्माह विलय गया, ऐम शरीरकरि कोई दिन जीउँहूं पद्मपुराण टोका मो बड़ा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जजर मेरा शरीर पुग्याम्रवकथाकोप, क्रियाकोप, अध्यात्म बारह मांझमकार विनश जायगा । मोहि मरी कायाको खड़ी और वसुनंदिके उपामकाध्ययनकी टव्या सुध नाहीं तो और मुध कहां में होय । पके फल टीकाक अतिरिक्त पाँच या छह टीका ग्रंथ और है ममान जो मंग नन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण जो उक्त पंडित दौलतगमजीकी मधुर लेग्वनीक करंगा. मोहि मृत्यु का ऐमा भय नाहीं जैमा चाकरी प्रनिफल है । आज पंडितजी अपन भौतिक शरीग्में चकन का भय है, पर मर आपकी आज्ञा ही का इम भूतल पर नहीं है, परन्तु उनकी अमर कृनियाँ अवलंबन है और अवलम्बन नाहीं, शरीरकी जैनधर्मप्रचार की भावनाओंम ओन-प्रोत है, उनकी अनिता करि विलंब होय ताक कहा करू । हे भापा बड़ी ही मरल नथा मनमोहक है । इन टीका नाथ मेरा शरीर जराके अधीन जान कोप मत करो ग्रंथों की भाषा ढ ढाहड़ देश की तत्कालीन हिन्दी कृपा ही करो, म वचन बोजेके राजा दशरथ सुनगा है जो ब्रजभाषाकं प्रभावमे प्रभावित है, उमम कर वामा हाथ कपोलक लगाय चिन्तावान हाय कितना माधय और कितनी मरलता है यह उनके विचारता भया, अहो ! यह जल की बुदबुदा समान अनशीलनसे महज ही ज्ञान हो जाना है । उन्नीमवीं अमार शरीर क्षणभगर है अर यह यौवन बहुत शताब्दी की उनकी भापा कितनी परिमार्जित और विभ्रमको धरै मंध्याकं प्रकाश ममान अनित्य है महावदार है यह उमके निम्न उदाहरगण में स्पष्ट अर अज्ञान का कारण है, विजनीक चमत्कार समान शरीर पर मम्पदा तिनकं अर्थ अत्यंत दःखके "हे दव । हे विज्ञानभूषण ! अत्यंत वृद्ध माधन कम यह प्राणी की है, उन्मत्त स्त्रीक कटाक्ष अवस्थाकारहीन शक्ति जो मै मो मेरा कहा अप- समान चंचल, मर्पक फण ममान विपके भरे, महागध ? मो पर आप क्रोध करो सो मै क्रोधका पात्र नापर्क ममूहकं कारण ये भोग ही जीवनको ठग है, नाहीं, प्रथम अवस्था विपै मरे भुज हाथीक मुड नानै महा ठग है, यह विपय विनाशीक, इनमे प्राप्त ममान हुने, उरस्थल प्रबल था अर जांघ गजबन्धन हुआ जो दु.ग्व मो मूढोंको सुग्वरूप भामं है, ये मृढ तुल्य हुती, अर शरीर दृढ़ हुता अब कनिके उदय- जीव विषयों की अभिलापा कर है अर इनको मनकरि शरीर अत्यंत शिथिल होय गया। पूर्व ऊँची वाछित विषय दुष्प्राप्य है, विपयोंके मुख देखन नीची धरती राजहंम की न्याई उलंघ जाता, मन- मात्र मनोज्ञ है, अर इनक फल अति कटुक है, य
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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