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________________ आत्मा, कर्म, सृष्टि और मुक्ति (ले० श्री लोकपाल ) जैनधर्मको कर्म-व्यवस्थाका वणन पूर्ण (कर्मपरमाणुओं) से घिरा चला आता है। वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण एवं आधुनिक विज्ञानसे सिद्ध पुद्गलके इस घेरेको, जो आत्माको घेरे रहता है, हम है। इसे ठीक-ठीक जानने के लिये आधुनिक “कर्मशरीर” कहते हैं। इसमेंसे हर समय विज्ञानके A tonic theory अणुविज्ञानका कुछ अनंतानंत पुद्गल परमाणु छूटते रहते है इस तरह ज्ञान एकदम आवश्यक है। यह होनेसे ही इमकी इस "कर्मशरीर" में कछ न कुछ परिवर्तन पेचीदगियों और गढताओं या गुत्थियांको कोई (Change) होता रहता है और यही परिवर्तन ठीक-ठीक समझते हुए जैनधमके क्म-विज्ञान जीवों और शरीर-धारियोंकी उत्पत्ति, मृत्यु तथा Karn Philosphy में एक अन्तह टि-सी और दूसरी अवस्थाओंके होने और बदलनेका पा सकता है। अन्यथा ज्ञान कोरा किताबी ही रह कारण ( Basis Cause & reason ) है, जिसे जाता है या काफी गहरी वस्तुस्थिति तथा क्रम- हम सृष्टि कहते हैं। आत्मा और पुद्गल ये ही विकास evolution को एकदम ठीक-ठीक समझनेके दोनों मिलकर सारी सृष्टिकी रचना करते हैं। ये नजदीक नहीं होता। जैमी जैनधर्ममें वणित कर्मा- ही इसके कारण है। परन्तु पुद्गल तो जड है की व्याख्या है, यदि उसे लाग पूरा पूरा समझ ले इससे आत्माको ही हम विशेषतः सृष्टिकर्ता कहें तो फिर कोई बात या विचित्रता ही समझनके लिय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। जैसे जलमें मिटटीबाकी नहीं रह जाती। इमसे ठीक-ठीक यह जाना के बारीक कण डाल दिये जायें तो वह जलको जा सकेगा कि कोई जन्म, मरण या दूसरी अव गंदा कर देंगे और यदि कोई रंग डाल दिया जाय स्थाऍ क्यों तथा कैसे होती है। इस विषयपर यदि तो वह जलको रंगीन कर देगा। जलका निर्मलरूप कोई विद्वान वैज्ञानिक ढंगसे विस्तृतरूपम लिखे तो जब इस प्रकार मलसहित-गंदा या विकृत हो जाता आज संसारमें इसे एक नृतन आविष्कार कहेगे। है तब उसमें पड़ने वाला प्रतिबिम्ब भी साफ नहीं इतना ही नहीं, यह संसारकी व्यवस्थाओंमें एक दिखलाई पड़ता, सब कुछ मिट्टीके कणोंके कारण क्रान्ति ला देगा, सब कुछ या सब प्रचलित धारणाएँ धुधला हो जाता है या रंगके कारण रंगीन । फिर उथल-पुथल हो जायेंगी और एक नया संसार नये सिरस बन जायेगा. जिसमें मचमुच ही सत्ययुगके __ भी जल सदा जल ही रहता है और उपयुक्त दवाई पहलेकी बातें सुख-शान्ति और आनंदका राज्य (Chamical) डालनेसे मिट्टी हटाकर या रंग हटाकर फिर अपने असलरूपमें लाया जा सकता जैस लोगोंने ईश्वर और प्रकृतिको अनादि है। इतना ही नहीं जल चाहे गंदा हो या रंगीन माना है वैसे ही हमने भी आत्मा और पुदगल उसमें वस्तुओंका प्रतिबिम्ब तो पड़ेगा ही या पड़ता ( Matter ) को अनादि माना है और यह माना ही है। यह जलका स्वाभाविक गुण है जो उसहै कि अनादिकालसे सांसारिक आत्मा पुदगल से अलग नहीं किया जा सकता, इससे हम होगा।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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