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डा० कालीदास नागका श्रीलालमन्दिर देहलीम
___ महत्वपूर्ण भाषण
[हालमें स्वतंत्रभारतको राजधानी देहलीमें एक भारत-अमरीकी विश्वसम्मेखन हुआ था, जिसका गोश्य विश्वशान्तिके साथ-ही-साथ एक-दूसरेको संस्कृतिको निकटसे जामना और पारस्परिक सहयोगको भावनाको बदाना था । डाक्टर कालीदास नाग एम.ए., पी.एच.डी. कलकत्ता भी, जो कलकत्ता यूनिवर्सिटीके विश्वविख्यात दार्शनिक तथा यशस्वो वक्ता है, और जिन्हें जैन धर्म एवं जैन संस्कृति से विशेष प्रेम है, इस सम्मेलनमें आमंत्रित थे और भारतीय प्रतिनिधिके रूपमें उसमें उनके अनेक भाषण भी हए थे। २१ दिसम्बर ११४४को श्रीलालमंदिरजीमें भी जैनमित्र मण्डल देहलीकी श्रोरसे प्रायोजित एक सभाम आपका जैनधर्म
और जैन संस्कृतिपर मार्मिक और प्रभावशाली महत्वका भाषण हुमा । यह भाषण जैनधर्मकी वास्तविकताभोंसे जहां भरा हुआ है वहां हमारी आँखें भी खोलनेवाला है। जैनधर्मको वे कितने सम्मान और प्रेमको दृष्टिमे देखते हैं तथा उसे विश्वधर्म एवं स्वतत्र भारतका एक महान धर्म देखनेके लिये कितने उत्सुक हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। पाठक स्वयं इस भाषणको पढकर अनुभव कर सकेंगे। क्या हमारा जैन समाज डाक्टर नागके इस माषणका हार्दिक स्वागत करता हुआ उनके देहलीमें पहिसा-मन्दिरको स्थापनाके सामयिक तथा उपयोगी सुझावका समुचित और सन्तोषजनक उत्तर देगा?
-स. सम्पादक] जैनधर्मसे मेरा प्रेम
उनको जैनधर्मके विषयमें नहीं-के-बराबर ही ज्ञान
है। यदि आपको इस विषय में कुछ भी सन्देह है मैं आजसे पूर्व भी कई बार देहली आया हूं।
तो आप इस बातका प्रमाण कुछ अजैन व्यक्तियोंदेहलीको इस बातका गौरव प्राप्त है कि यह भूतमें
के साथमे रहकर और उनसे बातचीत करके देख लें।
, हिन्दू तथा मसलमानोंकी राजधानी, हालमें ही अंग्रेजों
यह मेरे जैसे एक व्यक्तिका कहना है जो कि वास्तव की राजधानी और अब स्वतन्त्रता प्राप्त होनेपर वर्त
त में जैनधर्मका हितैषी तथा प्रेमी है । मानमें हमारी राजधानी है। मैं आज आपके समक्ष कोई भाषण देनेको खड़ा नहीं हुआ हूँ। जैसा जैनधर्मकी महानता और व्यापकता कि आपने अपने आप ही कहा है कि देहली भारत- जैनधर्म एक किसी विशेष जाति या सम्प्रदायका को प्रमुख जैन संस्थाओंका केन्द्र है। उमी बातका धर्म नहीं है परन्तु यह संसारके समस्त प्राणियोंका ममक्ष रखते हुए और जैनधर्मक एक सच्चे प्रशंसक अन्तर्गष्ट्रीय तथा सावभौमिक धर्म है। के नाते मैं आपस एक प्रश्न यह पूछना चाहता हूं कि जिस समय आप संस्थाओं के विषय में कहते हैं श्राप देहलीवालोंने कहां तक अपने आपको जैनधर्म तो मेरा कहना यह है कि जैन संस्थाओंका अर्थ सम्बन्धो विषयोस सम्बन्धित रखा है। आपकी जैनधम तथा उसके सिद्धान्तोका नहीं है । एक अपनी जातिके बाहर दूसरी साहित्यिक संस्थाएं संस्थास तात्पय है उसके सदस्योंका नाम | और संस्थाजैनधर्मक विषयमे बिल्कुल कछ नहीं जानती। का नाम सदस्योंके अतिरिक्त और कहीं नहीं जाता।