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किरण ६ ]
हमको जैनधर्मका भलीप्रकार मनन करना है । विदेशों में जैन संस्कृति और जैनधर्मके ज्ञानकी आवश्यकता गत दो वर्षोंसे विदेशों के बहुत हो प्रतिष्ठित नागरिक तथा विद्वान् व अन्वेषक भारतको आनेके इच्छुक है और वह भारतकी संस्कृति का ज्ञान करना चाहते हैं । उनको जैन संस्कृतिका कुछ भी ज्ञान नहीं कराया जाता । वह केवल यहांसे जैन तीर्थंकरोंकी विभिन्न प्रकारकी तथा विभिन्न धातुओं की मूर्तियां अपने साथ ले जाते हैं और उनको वह अन्य अपूर्व वस्तुओं संग्रह के समान रखते हैं । परन्तु वास्तव में हम यह नहीं चाहते कि हमारा यह जैनधमे एक अनोखी वस्तके समान, प्रदर्शनी तथा अजायबघर की वस्तु के समान, समझा जावे। इस सबका कारण यही है कि हमने जैनधर्म तथा इसके सिद्वान्तोंका प्रचार किया ही नहीं है । हमारा समस्त साहित्य हमारी अपनी हो भाषा-नागरी, संस्कृत तथा प्राकृत में है । हमारे साहित्यका एक प्रतिशत भाग भी के संसार की अन्य प्रचलित भाषाओं में नहीं है। जैनधर्म एक समस्त संसारका लोकप्रिय धर्म है और इसका आरम्भ भी इसी भावनामे हमारे तीर्थं करोंने किया था। तीर्थकरों की महान् आत्माओंने संसार के राज्यों को जीतनेकी चिन्ता नहीं की थी । राज्यको जीतना कोई कठिन कार्य नहीं है। सैकड़ों ही राज्य स्थापित होते हैं और विनाश हो जाते हैं। मेरी अपनी आँखोंके समक्ष संसारमें महायुद्ध नं० १ लड़ा गया और आप सब लोगोंके समक्ष महायुद्ध नं० २ हुआ। कितने ही राजे-महाराजे, बादशाह, सभापति तथा अन्य सत्ताधारी इस संसारसे उठा दिये गये। जैन तीर्थंकरोंका ध्येय और जैनधर्मका ध्येय राज्य जीतनेका नहीं परन्तु स्वयंपर विजय प्राप्त करने का है - यह ध्येय एक महान् ध्येय है और मनुष्यजीवन की सार्थकता इसी में है। जैनधर्म बाह्य
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वस्तुको प्रहण नहीं करना सिखाता परन्तु इसके विपरीत यह मनुष्यकी अन्तरिक भावनाओं तथा आन्तरिक जीवनको स्पर्श करता है ।
संसारके दो बड़े बिजेता-अहिंसा और अपरिग्रह
संसारमे मैं सिर्फ दो बड़े विजेता समझता हूं और उनमें सर्व प्रथम विजेता श्रहिंसा सिद्धान्त है। बाकी विजेता झूठे है । महायुद्ध नं० १ में अन्य अन्य जाति और देशोंने विभिन्न विभिन्न प्रकार के बड़े बड़े अस्त्रोंका मनुष्य-संहारके लिये निर्माण किया । एकको विजय तथा दूसरेको पराजय हुई, परन्तु क्या यह बात सत्य है कि विजेताक समस्त शत्रु का सदैव या कुछ कालके लिये भी विध्वंस हो गया ? कुछ ही वर्ष व्यतीत हुए कि दूसरा महायुद्ध आप सबके समक्ष लड़ा गया । इसमें प्रथम महायुद्ध से भी अधिक विध्वंसकारी तोपों व बन्दूकों का प्रयोग हुआ और सबसे अधिक श्राश्चर्यजनक वस्तु - Atom bomb का आविष्कार हुआ जिसके द्वारा एक बारमें ही ७५००० व्यक्तियोंका नाश हो जाता है । ७५००० में अधिक व्यक्ति वह होते जिनका आपसे कोई भी शत्र-भाव नहीं होता है- निर्दोष व्यक्तियोंका खून हो जाता है-स्त्रियाँ और बच्चे अनाथ हो जाते हैं। क्या इस महायुद्वके बाद यह समझा जाए कि विजेताके समस्त शत्रु ओंका नाश हो गया ? नहीं और कदापि नहीं। इस युद्ध में हमने अरबों रुपये खर्च कर डाले। अभी यह युद्ध पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ कि तृतीय महायुद्ध सामने दृष्टिगोचर है । इन तमाम युद्धोंने संसारमें कोई महान् परिवर्तन नहीं किया। यदि संसार में आज किसी वस्तुने महान् परिवर्तन कर दिखाया है तो वह है अहिंसा सिद्धान्त । अहिंसा सिद्धान्तकी खोज और प्राप्ति संसारकी समस्त खोज और प्राप्तियोंस महान् हैं--यह Newton के law of Gravitation स बहुत अधिक महान खोज है मनुष्यका स्वभाव हैं नीचे की ओर जाना । परन्तु जैनोंके तीर्थकरोंने सर्वप्रथम यह बताया कि अहिंसाका
डा० कालीदास नागका देहलोमें भाषण