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भनेकान्त
[वर्ष १०
पर भी बोया हुआ बीज उगता तथा समृद्धिको प्राप्त होता है। सर्वत्र क्षेम और सुभिक्ष होता है।
हुका वचन है। साथ ही पृथ्वी बहुत जल और धान्यसे सम्पन्न होती है. यज्ञोत्सवा प्रतिष्ठादि महोत्सवोंसे परिपूर्ण होती है और सब विडम्बनाऐं दूर होकर प्रशान्त वातावरणको लिए हुए मङ्गलमय हो जाती है ।। २५, २६, २७ ॥ पूर्वो वातः स्मृतः श्रेष्ठस्तथा चाप्युत्तरो भवेत् । उत्तमस्तु तथैशानो मध्यमस्त्वपरोत्तरः ॥२८॥ अपरस्तु तथा न्यूनः शिष्टो वातः प्रकीर्तितः । पापे नक्षत्र-करणे मुहूर्ते च तथा भशम् ॥ २६ ॥
__ अर्थ-पर्वका वायु श्रेष्ठ होता है। उसी प्रकार उत्तरका वायु भी श्रेष्ठ कहा गया है । ईशान दिशाक वायु उत्तम होता है । वायव्यकोणका तथा पश्चिमका वायु मध्यम होता है। शेष (दक्षिण दिशा तथ अग्नि और नैऋत्य कोणका) वाय अधम कहा गया है उस समय नक्षत्र, करण, तथा मुहूर्त यदि पापी हो-अशुभ हो-तो वायु और भी अधिक अधम होता है ।। २८, २६ ॥ पूर्ववातं यदा हन्यादुदीर्णो दक्षिणोऽनिलः । न तत्र वापयेद्धान्यं कुर्यात संचयमेव च ॥३०॥ दुर्भिक्ष चाप्यवृष्टिं च शस्त्र रोगं जनक्षयम् । कुरुते सोऽनिलो घोरं आषाढाभ्यन्तरं परम्॥३१॥
अर्थ-आषाढी पूर्णिमाके दिन पूर्वके चलते हुए वायुको यदि दक्षिणका उठा हुआ वायु परास्त करके नष्ट कर दे तो उस समय धान्यको नहीं बोना चाहिए किन्तु संचय ही करना चाहिये। क्योंकि वह वायु दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, शस्त्रसंचार (यद्ध) और जनक्षयका कारण होता है-उनके होनेको सूचित करता है । ३०, ३१ ।। पापघाते तु वाताना श्रेष्ट सर्वत्र चादिशेत् । श्रेष्ठानपि यदा हन्युः पापा: पापं तदादिशेत् ॥३२॥
अर्थ-श्रेष्ठ वायुओं में से किसीके द्वारा पाप वायुका यदि घात हो तो उसका फल सर्वत्र श्रेष्ठ कहना चाहिये और पाप (दुष्ठ) वायुऐं श्रेष्ठ वायु ओंका यदि घात करें तो उसका फल अशुभ होता है ।। ३२ ॥ यदा तु वाताश्चत्वारो भृशं वान्त्यपसव्यतः । अल्पादकं शस्यघातं भयं व्याधि च कुर्वते ॥३३॥
अर्थ-यदि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरके चारों पवन अपसव्य मार्गसे (दाहिनी ओरस) तेजीके साथ चलें तो वे अल्पवो, धान्यनाश भय और व्याधिको करने वाले होते हैं ।। ३३ ।। प्रदक्षिणं यदा वान्ति त एव सुखशीतलाः । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं राजवृद्धि जयं तथा ॥ ३४ ॥
अर्थ-वे ही चारों पवन यदि प्रदक्षिणा करते हुए चलते हैं तो सुख एवं शोतलताको प्रदान करने वाले होते हैं । तथा लोगोंको क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य, राजवृद्धि और विजयकी सूचना देने वाले होते हैं ।। ३४ ॥ समन्ततो यदा वान्ति परस्परविघातिनः । शस्त्रं जनक्षयं रोगं शस्थघातं च कुर्वते ॥ ३५ ॥
अर्थ-चारों पवन यदि सब ओरसे एक दूसरेका परस्पर घात करते हुए चले तो शस्त्रमय (युद्ध), जननाश, रोग और धान्यघात करने वाले होते हैं ॥ ३५ ॥ एवं विज्ञाय वातानां संयताः भैत्यवतिनः । प्रशस्तान्यत्र पश्यन्ति वसेयुस्तत्र निश्चितम् ।। ३६ ॥