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अनेकान्त
अंधकार में मिलकर स्वयं अंधकारमय बन जाते हैं किसी भी पदार्थका स्वरूप वर्ण, आकार, सुन्दरता, कुरूपता, घटियापन व बढ़ियापन, हेयता अथवा उपादेयता किसी में भी अन्तर नहीं रहता ।
यहां ऐसा प्रतीत होता है कि संसार में पदार्थ दो तरह के हैं
9 बे जो स्वयं प्रकाशमान हैं।
२ वे जो स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं किन्तु प्रकाशमान के सम्बन्धमें आकर प्रकाशित होजाते हैं। इस प्रकार हमें वस्तु स्वरूपका भली भांति पता चल रहा है कि हमारा शरीर, दूसरोंका शरीर हमारी वस्तुएं अथवा दूसरोंकी वस्तुएं जिनको हम प्रकाशकी सहायता में देखते रहते है और आपस मे लेन-देन करते रहते हैं मिलाते व विछुड़ाते रहते है सभी का वास्तविक स्वरूप तो अंधकारही है प्रकाश के हटते व अन्धकारके फैलतेही सबही समान अकारथ हैं, बेकार हैं, खोए हुएके समान है जिन को विना प्रकाशकी सहायतामें हम सम्भाल अथवा खोज तक नहीं सकते अत्यन्त अंधकारको अवस्था में हाथो हाथ नहीं दीखता औरकी तो बात ही क्या है ।
ऐसी अवस्था में किस वस्तुका घमण्ड करें जो स्वयं प्रकाश-हीन, प्रभाहीन व निमुल अवस्थाको प्राप्त है ?
क्या प्रकाशकी सहायता से प्रकाशमें आनेवाले पदार्थ मूल्यवान व सारकजा सकते हैं? क्या उनमें किसी प्रकारकी कारीगरी उनके असली स्वभावको बदल सकती है ? क्या इस प्रकारके पदार्थोंमें की गई चिन्ता कुछ लाभदायक होसकती है ?
अन्धकारयुक्त पदार्थ तो स्वयं अन्धकारमय हो रह सकते हैं अपना स्वरूप नहीं बदल सकते वह दूसरे प्रकाशमानकी शक्तिसे प्रकाशमें भलेही श्री जावें किन्तु उससे उन पदार्थोंको क्या लाभ ? सहारा हटते ही फिर जैसे के तैसे । हमारी सारी शक्ति न अन्धकारसे युक्त पदार्थोंमें लग रही है, उनके साथी हमारा सारा व्यापार होरहा है उनही
को हमें पहिचान होरही है उन ही पदार्थोंके साथ हमारा सारा बुद्धि-बल उपयुक्त हो रहा है इसीकारण हम अभी तक अपनी आत्माकी शक्तिका भान नही करसके हैं।
हमने यहीं पहिचाना है कि सूर्य आदिक ही बस्तु के प्रकाशित करने में सहायक होसकते है इस कारण उनकोही इष्ट देवता मान लिया है और इसी प्रकारको मिथ्या कल्पनाओं द्वारा इनके प्रकाश से देखने में आनेवाली वस्तुओंको हो अपने लिये लाभदायक श्रद्धान कर लिया है। उनके विषय में हा ज्ञान और उनकी प्राप्ति के उपायोंमे प्रयत्न किया है यही मिथ्या श्रद्धान ज्ञान व चारित्र है ।
समस्त वस्तुओं को स्वयं अपनी शक्तिके द्वारा समस्त कालमें अनुभव करने वाली शक्ति स्वयं आत्मामें विद्यमान है किन्तु इस और तनिक भी ध्यान नहीं दिया है ।
जितने भी शरीर धारी प्राणिमात्र छोटे-से-छोटे व बड़े-से-बड़े जो संसार में सवत्र भरे हुये है उन सभी प्रत्येक आत्मा में इस ही प्रकार की शक्ति छिपी हुई है ।
अपनी मिथ्या कल्पनाके कारण इसी तरह दूसरे पदार्थोंके सहारेको लेकर भयभीत हुए आप अपनेको गौरा व अन्य को मुख्य मान रहे है ।
इसी तरह अगणित जन्म व मरण कर चुके हैं दूसरों का ही भरोसा सहारा अथवा दूसरों पर ही निर्भर अपनेको मानकर वेहाल होरहे है, स्थिरता व शान्ति को कभी प्राप्त नहीं होसके हैं ।
सूर्य अस्त होनेके पश्चात रात्रि में किसी कारण वश दीपक आदिकके बुझ जाने की अवस्था में हम भयभीत होजाते है-वेचैन होजाते हैं अस्थिर हो जाते हैं दुखी होजाते हैं।
रोशनोकी दशामे हमारो शान्ति व काम काज सव रोशनीकी ही शक्ति पर निर्भर रहते है; अपने ऊपर नहीं अपनी श्रात्माकी शक्तिपर नहीं ।
यह पराधीन दशा हमारे लिये किसप्रकार सदा रहने वाली शक्तिको प्राप्त करा सकती है ?