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प्रकाश
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यह सयं चन्द्र व दीपकका प्रकाश स्वयं भी बालू रेतके पेलनेके समान अथवा कुएं के रहटके पुणे नहीं जो सदा काल अपने प्रकाशसे सब समान है। ढलती फिरती छाया, चलती-फिरती हवा प्रकाशित करसके । काल-भेदके कारण सर्य चन्द्र चंचल लक्ष्मी व चंचल मन सब हवामें महल बनाने को उदय व अस्त होना पड़ता है बादलोंके की बातें हैं। सब कुछ करा कराया जरा सी देरमें द्वारा छपना पड़ता है, राहके द्वारा प्रसित किये बदल जाता है। जाते है, प्रकाशकी हीनता व अधिकताको प्राप्त होना इसप्रकार देह वलसारका वास्तविक विचार पड़ता है, प्रातः काल, मध्यान्ह व सायं कालमें भिन्न करना और हर पदार्थको उसकी असली दशासे भिन्न दशाको प्राप्त होना पड़ता है प्रतिदिन अपने लेकर उसकी कुल विकृत हुई अथवा विकृत की गई प्रकाशके समय में हीनता व अधिकता करनी पड़ती अवस्थाओंपर ध्यान देनेसे भेद-विज्ञानकी ज्योति है, दीपक तनिक सी हवासे बझ जाता है तेल और जागृत होती है। वत्तीके सहारेसे जलता है-इनमें भी एक समान जिस भलके कारण संसारमें आज तक दुःखी स्थिरता नहीं दीखती फिर इन द्वारा प्रकाशित पदार्थ हो रहे है उस भलका पता लगाना और फिर उसकिस प्रकार संसारके प्राणियोंसे स्थिर भेद भावसे प्रकारकी भूलमें न फंसना यही मनुष्य पर्यायको प्राप्त रहित सुख ष आनन्द को उत्पन्न करसकते हैं ? करनेका वास्तविक फल है। इसी से मनुष्य जन्म इसी कारण संसारमे सभी प्राणी दुखी हैं।
अन्य एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रिय सेनी पशु अथवा "दाम विना निधन दुखी तृष्णा बश धनवान" देव व नारकी पर्याायोंसे उत्तम है । इसप्रकारका
यदि हम अपने लिए वास्तविक सदा रहनेवाली विचार व विवेक बुद्धि जीवमें मनुष्य पयोयमें ही शान्ति चाहते है तो हमको अपना मार्ग बदलना जागृत होती है। पड़ेगा। वम्बई जानेकी इच्छा रखने वाला पथिक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह विचार करे व अनुयदि कलकत्तेकी लेनपर चलता रहेगा तो वह इष्ट भव करे कि मेरी आत्मा जो सदैव से दुःखी जीवन स्थानसे दूरही दूर होता जावेगा और उसका सारा व्यतीत कर रही है उसका कारण वह स्वयं तो नहीं परिश्रम व्यर्थ ही जावेगा।
है। जिस प्रकाशकी उसको आवश्यकता है-जिस पदार्थों को सदाकाल प्रकाशित करने की शक्ति न निर्भयता व शक्तिकी उसे जरूरत है वह ज्या पसीने सूर्य में है, न चन्द्र में, न दीपक मे है, न किसी अन्य पास नहीं है । जरा उसको अपने आपमें ही खोजमे है। उनके मासे पदार्थभी सदा एकसे नहीं कर तो देखो। 'बगल में छोरा गांवमें खोजा' क्या दीखते यहभो दोष है। सूर्य आदिकी चालके साथ यही बात तो नहीं ? वस्तुकी अच्छाईका आकारबदलता रहता है, किसी सत्गुरु बार बार प्रन्थोंमें आत्माका सत्य स्व. को कोई चीज कम बढ़ दिखाई देती है । कम-बढ़ पन रूप बता चुके हैं किन्तु वह सत्य प्रतीत नहीं हुआ एक दूमरे की अपेक्षा कृत होता रहता है। समस्त उसका कारण अनादि कालसे लगा हुआ मिथ्यावस्तुएंभी एक समयमें दृष्टिगोचर नहीं होती, चिराग श्रद्धान ही तो है। तले तो अन्धेरा ही रहता है । वस्तुए निकट होनेपर जरा ठहरो समझो समझने का अभ्यास करो भी वहुधा दिखाई नहीं देती।।
यह कालिमा जो आत्मापर चढ़ी हुई है उसको हल्की इससे अनभव होता है कि संसारमें देखने में
करते जाना है पश्चात् सत्गुरुओं की बात समझमें
ले जाना पनात मनगर __ आने वाली समस्त वस्तुएं अधूरी हैं निस्सार हैं- अवश्य आने लगेगी इसमें घबरानेकी बात नहीं।
सार रहित हैं-विश्वासको पात्र नहीं, श्रद्धान, ज्ञान अपनी आत्माका श्रद्धान यही है इसीप्रकार है, व आचरणकी पात्र नहीं। इनके साथ सारा परिश्रम और नहीं और प्रकार नहीं आत्माका ज्ञान कि आत्म