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३८८ अनेकान्त
[वर्ष १० श्रावकके ग्यारह पदों ( प्रतिमाओं) का वर्णन करते
-पर्व ३६ श्लो० ७७ हुए, ११ वी प्रतिमाके धारक श्रावकका जो स्वरूप
___ इसके सिवाय, श्रादिपुराणमें, उन विद्याशिल्पोवर्णन किया है, वह इस प्रकार है
पजीवी मनुष्योंके लिए, जो अदीक्षा ( मुनिदीक्षाके
अयोग्य ) कुलमें उत्पन्न हुए हैं, उपनीति आदि गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य।
संस्कारोंका निषेध करते हुए, जिस उचित लिंगका भैयाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥४७॥
विधान किया है वह एकशाटक-धारी' होना है अर्थात् - घाको छोड़कर मुनि-बनमें जाकर
और उसका संकेत ११ वी प्रतिमाके आचरण की और गुरूके निकट ब्रतों को ग्रहण करके, जो तपस्या
तरफ ही पाया जाता है, यथाकरता हुआ भिक्षा-भोजन करता है और खण्ड
अदीक्षा कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । वस्त्रका धारक है वह उत्कृष्ट श्रावक है।
एतेषामुपनीत्यादि-सस्कारो नाभिसम्मतः ।। इसमें ११ वी प्रतिमावाले श्रावकको 'उत्कृष्ट
तेषां स्यादुचितं लिंग स्वयोग्यव्रतधारिणां । श्रावक'के नामसे निर्दिष्ट किया है। चेलखण्डधारी
एक्शाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ।। या खण्डवस्त्रधारी नामकी भी कुछ उपलब्धि होती
-पर्व ४० श्लो० ७०,७१। है, और उसके लिए १ घर छोड़कर मुनिवन (तपोवन ) को जाना, २ वहाँ गुरुक निकट व्रतोंका है कि ११ वी प्रतिमाके आचरणका अनुष्ठान करनेग्रहमा करना,३ भिक्षाभोजन करना,४ तपस्या वालेको उस समय---वोंशताब्दीम-'एकशाटककरना और ५ खण्ड वस्त्र रखना, ये पाँच बात धारी' या एक वस्त्रधारी भी कहते थे-वह इस नामजरूरी बतलाई है।
से संलक्षित होता था । स्वामी समन्तभद्रने उसे ही (३) भगवजिनसेनप्रणीत आदिपराणमें. 'चेजखण्डवारी' लिखा है। यद्यपि, कहीं भी ग्यारह प्रतिमाओं का कथन नहीं
कथन नहा (४) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें ११ वी प्रतिमा है परन्तु उसमें गभीन्वय और दीक्षान्वय का स्वरूप इस प्रकारसे पाया जाता हैनामकी क्रियानों में 'गृहत्याग' क्रियाके बाद और जो गावकोडिविसुद्ध भिक्खायरणेगण भुजदे भोजं जिनपन' फिपासे पहले 'दोक्षाद्य' नामकी जो जायणरहियं जोगा उहिटठाहारविरो मो॥३०॥ क्रिया वर्णन को है उसका अभिप्राय ११ वी प्रतिमा- अथात-जो श्रावक नवकोटिविशुद्ध (मनके पाचरणम ही जान पड़ता है। उसमें भी घर वचन-काय और कृतकारित-अनुमोदनाक दोष से छोइन के बाद तपोवरको जाना लिम्बा है और ऐसे रहित ऐसे शुद्ध) और योग्य आहारको बिना किमी तपस्वीके लिए एक शाटक (वस्त्र ) धारी होनेका याचनाके मिज्ञा-द्वारा ग्रहण करता है वह 'उद्दिष्टाविधान किया है। भिक्षा-भोजनादिकका शेष कथन हारविरत' नामका श्रावक है। उमके स्वरूपसे ही आ जाता है यथात्यनागारस्य सदृष्टः प्रशांतस्य गृहीशिन: ब० शीतलप्रसादने अपने 'गृहस्थधर्म' में स्वामि प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकरााटकधारिण: ॥ कातिकेयानुप्रेक्षाकी काका, जो कि शुभचन्द्र भट्टारकद्वारा यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहण प्रतिधार्यते। वि० स० १६१३ में बनकर समाप्त हुई है, एक अश दोक्षाय नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥ उद्धत किया है और वह अंश इसी गाथा टोका-रूपसे
-पर्व ३८ श्लो० १५८,१५६ है। उसके अन्तमें दो पद्य निम्न प्रकारसे दिये हैंत्यक्तागारस्य तस्यांतस्तपोवनमुपेयुषः ।
एका दशके स्थाने ह्य त्कृष्ठः श्रावको भवेद्विविधः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षामिष्यते ।। वस्त्र कधरः प्रथमः कोपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥