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________________ ऐलक-पद-कल्पना (११ वी प्रतिमाका इतिहास) । सम्पादकीय ] दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकोंकी ११ वी प्रतिमा- (चारित्रप्राभृत) ग्रन्थमें यद्यपि एक गाथा द्वारा के आजकल दो भेद कहे जाते हैं, एक 'क्षुल्लक' और ग्यारह प्रतिमाओं के नाम पाये जाते हैं परन्तु उनके दुसरा 'ऐलक' । ऐलक सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है स्वरूपादिकका कोई वर्णन उक्त ग्रन्थमें नहीं है और और उसके साथ ही श्रावकधर्मकी परिपूर्णता न आचार्यमहोदयके किसो दूसरे उपलब्ध ग्रन्थमें मानी जाती है। ऐलक' पदका प्रयोग भी अब दिनों ही इन प्रतिमाओंके स्वरूपका निर्देश है। हॉ, दिन बढ़ता जाता है । यह शब्द प्रायः जैनियोंको सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभूत ) प्रन्थमें एक गाथा इस जबान पर चढ़ा हुआ है और जैनसमाचारपत्रों में प्रकारसे जरूर पाई जातो हैभी इसका खूब व्यवहार होता है। परन्तु उत्कृष्ट दहयं च वलिंगं उक्किटठ अवरसावयाणं च । श्रावकके लिए 'ऐलक' ऐसा नाम निर्देश कौनसे भिक्ख' भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥२१॥ आचार्य महाराजने किया है, कब किया है, किस इसमें मुनिके बाद दूसरा उत्कृष्ट लिंग उत्कृष्ट भाषाका यह शब्द है और इसका क्या अर्थ होता श्रावकका-गृहत्यागी या अगृहस्थ श्रावककाहै, इत्यादि बातोंका परामर्श करनेपर भी कहीं कुछ बतलाया गया है और उसके स्वरूपका निर्देश इस पता नहीं चलता। विक्रमकी १७ वीं शताब्दीसे प्रकारसे किया गया है कि, वह पात्र हाथमें पूर्वके बने संस्कृत और प्राकृनके सभी प्राचीन ग्रन्थ लेकर समिति-सहित मौनपूर्वक मिताके लिए भ्रमण इस विषयमें मौन जान पड़ते हैं। किसीमें 'ऐलक' करता है। यह उत्कृष्ट श्रावक ११ वी प्रतिमाके शब्दका नामोल्लेख तक नहीं मिलता । संस्कृत और धारकके सिवा दूसरा कोई मालूम नहीं होता, और प्राकृत भाषाका यह कोई ऐसा शब्द भी मालूम नहीं इसलिए यह स्वरूप उसीका जान पड़ता है। परन्तु होता, जिसका व्युत्पत्तिपूर्वक कुछ प्रकृत अर्थ किया इस सब कथनसे ११ वी प्रतिमावालेके लिए जाय । वास्तव में, खोज करनेसे, ऐलक-पदकी उद्दिष्टविरत' और 'उत्कृष्ट श्रावक के सिवाय दूसरे कल्पना बहुत पीछे की और बहुत कुछ आधुनिक किसी नामकी उपलब्धि नहीं होती। जान पड़ती है। अतः आज मैं इसी विषयके अपने (२) स्वामी समन्तभद्राचार्यने अपने रत्नकरअनुसंधानका अपन पाठका सामन रखता हू एडक नामके उपासकाध्ययन (श्रावकाचार )म, आशा है कि विज पाठक इसपर भले प्रकार विचार करेंगे। और साथ ही,११ वी प्रतिमाके स्वरूपमें 8 वह गाथा इस प्रकार है दंसणवयसामाहय पोसह सच्चित्तरायभत्तेयं । समय-समयपर जो फेरफार हुआ है, अथवा बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्टदेसविरदेदे ॥२१॥ आचार्य-आचार्यके मतानुसार उसमें जो कुछ यही गाथा घसुनन्दिश्रावकाचारके शुरूमें नम्बर ५ विभिन्नता पाई जाती है उसे भी ध्यानमें रक्खेंगे। पर पाई जाती है और गोम्मटसारके संयममार्गणाधिकार(१) भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य के चारित्त पाहुड में भी यही गाथा दी हुई है ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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