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________________ १७२ अनेकान्त [ वर्ष १० सरहके पुद्गल परमाणु, मूलसंघ एवं वर्गणाके रूपमें करते हैं पर अभी अनंतानंत Phenamena बाहरसे आते और शरीरोंसे बाहर निकलते रहते हैं। क्रियाएं ऐसी हैं जिनका हमें कतई ज्ञान या भान इतना ही नहीं हर शरीरके अन्दर भी इस तरहकी नहीं। हम जानें या न जानें, असर तो हर एकका क्रिया-प्रक्रिया हर एक छोटेसे छाटे दो हिस्सों, अंगों, होता ही है। इस तरह यद्यपि हम समझते है कि दो किस्मोकी चीजों या कहीं भी दो नजदीकी रक्त- आधुनिक विज्ञान बहुत बड़ी उन्नति कर गया है पर कणों या मांसपिण्डों तकमें होती ही रहती है । इन यदि ठीक तरहसे देखा जाय तो हमारा सारा ज्ञान पदगल परमाणुओंका आदान-प्रदान किसी-न-किसी महासमुद्रमेंसे केवल एक लोटा पानीके बराबरकी उपमें अविराम गतिसे शास्वत चलता रहता है। तलना ही रखता है। ज्ञान अपरंपार है-समय और यही हर तरहके परिवर्तनोंका मूल कारण है। हर शक्तियां सीमित हैं-इससे पहले जो लोग जान गए एक प्रह-उपग्रह भी इसी तरह अविराम गतिसे इन और हमारे मार्ग-प्रदर्शनके लिए कर कह गये या पदगलोंको अपने चारों तरफ फेंकते रहते हैं तथा लिख गये उससे मदद लेना, शिक्षा लेना हमारे एक दसरे द्वार फंके गए पुद्गल एक दूसरे पर या आगे बढ़नेके लिए परम आवश्यक है। हमारे जैन एक दूसरे ग्रह-उप ग्रह पर अवस्थित वस्तुओं जीवों, शास्त्रकारोंने सर्वन तीर्थङ्कारोंका ज्ञान अपनी शक्तिके देहों इत्यादि पर अपना अमिट प्रभाव डालते है। अनुसार आगमोंमें भरा; पर अनन्तज्ञान भला कहीं सर्य तो सारी शक्तियोंका अजस्र स्रोत कहा गया योथियोंमे भर सकता या समा सकता है ? ये शास्त्र है। यह भी इसी कारण है कि सूयसे ये पुद्गल तो केवल मार्ग या दिशा इंगित करनेके लिये है, बाकी अजस्र प्रवाहके रूपमें चारों तरफ बड़ी तीव्रतम तो स्वयं चेष्टा कर हम जितना जो कछ जानलें वही गतिसे निकलते रहते हैं और इसी कारण प्रकाश भी गनीमत और हमारी तथा संमारकी भलाई में सहाहोता है और हम सभी संसारिया या ममारकी सभी यक हैं। अथवा असली-सचा प्रत्यक्ष वस्तुओं पर इनका अनुण्ण प्रभाव हर तरह पड़ता अपनी चीज है। या होता रहता है। हमार वैज्ञानिकान जितनी आत्माको अनादि-कालीन पुद्गलके सम्बकिरणों (rays) या धाराओं (waevs) का अनुमा न्धस छुटकारा दिलाकर मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति कर धान या अनमान किया है उमस कहीं अधिक अनं- लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य, ध्येय एवं तानंत संख्या और रूपोंमें ये पुद्गल दृश्य और कर्तव्य है। ऐसा करके ही हमारे पुरुषार्थकी सिद्धि अदृश्य धाराओं एवं किरणोंकी बनावट या शकलमें होती है अन्यथा तो समय और जीवन बर्बाद तथा सर्यसे इस तरह निकलते रहते रहते है जिनका पार बेकार ही है। आत्माकी मुक्तिके लिए आत्मा और पाना या पूरी जानकारी प्राप्त करना असम्भव मा पदगलादिका रूप एवं आपसी व्यवहार और क्रियाही जान पड़ता है। ये सारी पुद्गलकी धाराएं जो प्रक्रियाका रूप सूक्ष्म रूपसे जान लेना परम आवएक दूसरी वस्तुसे टकराती तथा उनके अन्दर घुसती- श्यक है। इसके वगैर कुछ भी नहीं हो सकता या निकलती रहती हैं वे हर एक वस्तुकी अंदरूनी मोले- इसकी जानकारीमें भ्रम और गलती रहनेसे हमारा क्यूलर या आणविक बनावटमें कुछ न कुछ कम- जो कुछ कार्य फलतः होगा वह सब गलत एवं भ्रमबेश स्थायी या क्षणिक (जहां जैमा भी हो) परिवर्तन पूण तथा उलटा प्रभाव-असर या फल उत्पन्न या प्रभाव अवश्य करती हैं । बहुत सी बातोंको करने वाला होकर बज'ए लाभके हानि ही करेगा। इस स्क्यं खुलेआम देखते जानते और अनुभव करते केवल पुस्तकोंकी जानकारी ज्ञानका या शुद्धज्ञानका हैं, बहुत सी बातोंको यन्त्रोंकी सहायतासे और मापदंड नहीं। पुस्तके तो एक साधन या सहारेकी बहुतोंको अनमान या आभासमात्रसे ही अधिगत तरह हैं-उन्हें ही या उन्हीं में हर जानकारीका अन्त
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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