________________
-
१५० अनेकान्त
[वर्ष १० मिथ्यात्वासंयमो योगः कषाया अपि हेतवः । इति च नवपदार्थ यः सुधोर्वेत्ति सोऽयं कर्मबंधस्य बंधोऽपि प्रकृत्यादेश्चतुर्विधः ।। ७० ॥ सकलसुरनरेन्द्रः पूजितः शुद्धदृष्टिः । कर्मबंधविनिमुक्तो जीवो लोकाग्रमध्यगः। श्रयति परमसौख्यं सर्वकर्मक्षयोत्थ अनंतज्ञानदृग्वार्यसुखाद्यष्टगुणैर्युतः ॥ ७१ ॥ विपुलमतुलमुच्चैः केवलज्ञानपूर्णम् ॥ ७ ॥ सिद्धः शुद्धो निरातको निष्कलो निरुपमः स्वयम्। इति श्रीमहारकवादीभसिंहसूरिविरचितो नित्यो भाति मुनीन्दाद्यायो वंद्यो निरन्तरम्।।२।।
नवपदार्थनिश्चयः ॥समाप्तः॥ बडली स्तंभङ लेख
(ई० पू० ४४३ अथवा ३७३) (श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
प्रस्तुत लेख एक सफेद पत्थरपर उत्कीर्ण है विराय भगवत...-४ चतुरासितिवसे "बाये और राजपूताना संग्रहालय अजमेरमें सुरक्षित है। सालिमालिनिये....र' निविथ माझिमिके उक्त पत्थर किसी षटकोण स्तंभके द्विधा खंडित (स्वर्गीय डा० काशीप्रसाद जायसवालका पाठ) टुकड़ेका एक ओरका हिस्सा है। स्वर्गीय महामहो- प्रथम पंक्तिमे भगवान वीर (महावीर) का पाध्याय गौरीशंकर हीराचंद अोझाने इसे राजपूताना उल्लेख है जिनके सम्मानमें दिये गये दानकी सूचना के बडली ग्रामसे करीब आधा मील दूर भैरूजीके के लिए यह लेख उत्कीर्ण किया गया था। यहाँ वि मंदिरसे प्राप्त किया था जहांकि मंदिरका पुजारी के वकारका वृत्त प्रस्तुत लेखमें उत्कीण अन्य वकारों इसे तम्बाकू कूटनेके काममें लाता था । इसका के वृत्तसे छोटा है, इसीप्रकार इ मात्रा भी अपने मध्यभाग परा और आठ इंच चौडा है, वायां ढंगकी निराली ही है जो अन्य ब्राह्मी लेखोंमें नहीं हिस्सा टूटा हुआ और ३।। इंच चौड़ा है जबकि देखी जाती । स्वर्गीय महामहोपाध्याय गौरीशंकर दायां हिस्सा केवल दो इच चौड़ा है और उसमें हीराचंद ओझा इसी कारण उस ई मात्रा मानते थे प्रत्येक पक्तिमें केवल एक-एक अक्षर ही लक्षित किन्तु स्वर्गीय डा० काशीप्रसाद जायसवालने उसे होता है।
इमात्रा माना है और उसकी तुलना अशोकके कालउत्कीर्ण लेख कुल १३४ १०, इच स्थान घेरे सीके लेखमें प्रयुक्त ति की इ मात्रासे की है। हुए हैं और प्रत्येक अक्षर भलीभांति साफ-साफ द्वितीय पंक्ति विशेष महत्वकी है क्योंकि यहां उत्कीर्ण किया हुआ है। लेखको भाषा प्राकृत किसी ऐसे संवतका उल्लेख किया गया है जो उस
और लिपि प्रागशोककालीन ब्राह्मी है। मूल लेख समय प्रचलित था और जिसके ८४वें वर्षमें यह इस प्रकार है:
लेख उत्कीर्ण किया गया था। चूंकि प्रस्तुत लेखके वा बीचमें
अक्षर अशोकसे पूर्व के हैं और पिप्रावासे प्राप्त लेखके १. वि गय भगव (त) अक्षरोंसे मिलते है इसलिये यह विचार करना ८०(४) चतुरासिति व
आवश्यक हो जाता है कि क्या अशोकसे पूर्व किसी जाये सालिमालिनि (य ?) संवतका प्रचलन था ? अशोकसे पूर्व प्रचलित एक ही र नि(िव) थ माझिमिके (य?) संवतकी मत्ता अभी तक ज्ञात हो सकी है और वह
0.