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किरण ४]
बडली स्तंभखंड लेख है नंदसंवत जिसका प्रारंभकाल ४५८ ई० पू० सिद्ध ल्लेख है जो कोई स्त्री प्रतीत होती है। हो चुका है (ज० वि० ओ० रि० सो० १६२६ पृष्ठ चतुर्थ पंक्तिमें दान की गई वस्तु और दानके २३७)। यदि प्रस्तुत लेख नंदसंवत्के ८४वें वर्षमें स्थान माझमिक (माध्यमिक) का उल्लेख है जिसे उत्कीर्ण किया गया हो तो उसके अनुसार इसका पिछले लेखोंमें माध्यमिका कहा है। यह स्थान दक्षिसमय ३७४ या ३७३ ई० पू० होना चाहिये। दूसरे ण-पूर्व राजपूतानेमें है और प्राचीन कालमें यह ओर, यह भी अनुमान किया जा सकता है कि चूकि विशाल-नगरी थी जिसका प्रमाण 'अरुणत यवना इस दानका संबंध भगवान वीरसे है (और दान साकेतम, अरुणत् यवनाः माध्यमिकाम्' पतञ्जलिके करनेवाला भी कोई उनका भक्त या अनुयायी ही इन वाक्योंसे मिलता है। -अर्थात् जैन-होगा) अतः यह वर्ष उनके निवाण इसप्रकार, प्रस्तुत लेख न केवल जैन इतिहास संवतमे भी मबद्ध हो सकता है। (जैनग्रन्थों में प्रायः बल्कि भारतीय इतिहासके लिये विशेष महत्वका है। इस प्रकारके उल्लेख मिलते है कि वीरनिर्वाणके क्योंकि पहले तो यह अबतक प्राप्त सभी उत्कीरों इतने वर्ष बाद अमुक कार्य हुआ, इतने वर्ष बाद लेखोंमे प्राचीनतम है। दूसरे, यह अशोकसे पूर्व अमुक राजा या आचार्य हुआ आदि) यदि हम एक स्वतंत्र संवतके प्रचलनका उल्लेख करता है लेखमे प्रयुक्त संवत्को वीरनिवारण संवत् मान ले तो और तीसरे, इससे यह भी विदित होता है कि ई० फिर इसका काल ४४३ ई० पू० होना चाहिए। पृ. ४थी-५वीं शतीमें राजपूतानेमें भगवान वीरके
तृतीय पंक्तिमें, दान करने वाले व्यक्तिका नामो- अनुयायी और भक्तोंका निवास था।
यशोधरचरित्रके कर्ता पझनामकायस्थ
(लेखक-५० परमानन्द जैन, शास्त्री )
यशोधर-चरित्रके कर्ता कवि पद्मनाभ हैं। इन- धर्म कितना समुदार है कि उसका आश्रय पाकर की जाति कायस्थ थी। जैन समाजमें कायस्थ जाति- पापीसे पापी अपने जीवनको ऊंचा उठा र के अनेक विद्वान् और कवि हुए हैं। सुप्रसिद्ध है। यमपाल चाण्डालकी कथा तो लोक-प्रसिद्ध 'जीवन्धर चम्पू' और 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्यों- है ही। यही कारण है कि जैनधर्म विविध वंशों के कर्ता महाकवि 'हरिचन्द' भी उक्त कायस्थ जाति और जातियोंके व्यक्तियों में आज भी उज्जीवित के विद्वान थे। इनके अतिरिक्त अनेक विद्वान् जैन है, उन्होंने जैनधर्मको पाकर अपने जीवनको ग्रन्थोंके लेखक एवं प्रतिलिपिकर्ता हुए हैं । उन्हें जैन आदर्श बनानेका प्रयत्न किया है । कविवर धर्मसे भारी प्रेम था और उनके पावन सिद्धान्तों पद्मनाभका संस्कृत भाषापर तो अधिकार था ही, में आस्था थी। इतना ही नहीं, किन्तु उनके ग्रन्थों जैनधर्मके अचार-विचारों और सिद्धान्तोंका भ. का अध्ययन करनेसे मालूम होता है कि वे जैन गुणकीर्तिके सानिध्य में अध्ययन किया । फलतः सिद्धान्तके कितने मर्मज्ञ विद्वान थे । यद्यपि वे उनकी आस्था जैनधर्ममें हो गई। आज भी जो महागृहस्थ थे तो भी गृहस्थोचित सभी कर्तव्योंका नुभाव जैनवमके सिद्धान्तोंका अध्ययन करते हैं के पूर्णरूपसे पालन करते थे। उनकी प्रतिभा विशाल उसकी महत्तासे परिचित हैं थी और कवित्वशक्तिका उनमें विकास था। जैन कविवर पद्मनाभने भद्रारक गुणकीतिके उपदेश
काव