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अनेकान्त
[ वर्ष १०
से पूर्वसूत्रानुसार 'यशोधर चरित्र' अथवा 'दयासुन्दर. अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत संस्कृत और हिंदी गुजविधान' नामक ग्रन्थकी रचना राजा वीरमेन्द्र अथवा राती भाषामें अनेक ग्रंथ रच गये हैं। चूँ कि इम वीरमदेवके राज्यकालमें की है। उनके महामात्य काव्यग्रंथमें दयाका कथानक दिया हुआ है इसलिये (मंत्री) श्री साधु (साह) कुशराज जैसवालके अनु- इस प्रन्थका नाम 'दयासुन्दरविधानकाव्य' नामसे रोधसे की है । पद्मनाभ संस्कृतभाषाके अच्छे विद्वान् भी उल्लेखित किया है। थे और जैनधर्मसे प्रेम भी था अतः ग्रन्थ बनकर पद्मनाभने अपना यह प्रथ राजा वीरमदेवके तय्यार हो गया। संतोष नामके जैसवालने उसकी राज्यकालमें रचा है। वीरमदेव बड़ा ही बहुत प्रशंसा की और विजयसिंह जैसवालके पुत्र प्रतापी राजा था, अपने तोमरवंशका भूषण था, लोक पृथ्वीराजने उक्त ग्रन्थकी अनुमोदना की थी। मे उसका निर्मल यश व्याप्त था। दान-मान और
कुशराज जैसवाल कुलके भूषण थे। यह वीरम- विवेकमें उस समय उसकी कोई समता करने वाला देवके मत्री थे और अपने कार्यमें दक्ष, तथा शत्र. न था। यह विद्वानोंके लिये विशेष रूपसे आनन्दपक्षको क्षणभरमें नष्ट करने वाले, और पृथ्वीको दायक था और पृथ्वीका यथार्थरूपसे उपभोग करता देख-रेख एवं उसके संरक्षणमें समर्थ बुद्धि थे। आप था। वह ग्वालियरका शासक था और उसका वंश के पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लोणा- तोमर था। यह वही प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है जिसे दिल्ली देवी था, पितामह का लण और पितामहीका नाम को बसाने और उसके पुनरुद्धारका श्रेय प्राप्त है। उदितादेवी था आपके पांच और भी भाई थे। जिन वीरमदेवके पिता उद्धरणदव थे, जो राजनीतिमें दक्ष में चार बड़े और एक सबसे छोटा था। हंसराज, और सर्वगुणसम्पन्न थे। सन् १४०० या इसके आससैराज, रेराज, भवराज और क्षेमराज । क्षेमराज । पास ही राज्यसत्ता वीरमदेवके हाथमें आई थी। इनमें सबसे छोटा ओर कुशराज उससे बड़ा था। ई० सन् “४०५ में मल्लू इकवालखांने ग्वालियरपर कुशराज बड़ा ही धर्मात्मा, और राजनीतिमें दक्ष था। चढ़ाई की थी, परन्तु उस समय उसे निराश होकर इसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभजिनका एक विशाल ही लौटना पड़ा । फिर उसने दूसरी बार भी ग्वालिजिनमंदिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा भी यरपर घेरा डाला, किंतु इस बार आस-पासके कराई थी। कुशराजकी तीन पत्नियाँ थीं रल्हो, लक्ष- इलाकोंको लूटकर उसे वापिस लौटना पड़ा । वीरमगश्री, और कोशीरा ये तीनों ही पत्नियाँ सती. दवने उससे सुलह कर ली थी। साध्वी और स्त्रिीयोचित गुणोंसे अलंकृत थीं। ल्हो आवायें अमृतचन्द्रकी 'तत्त्वदीपिका' (प्रवचनगृहकार्यमें कुशल तथा दानशीला थो और नित्य सारटीका) की लेखकप्रशस्तिमें, जो वि० सं० १४६६ जिनपजन किया करती थी. इससे कल्याणसिंह में लिखी गई है उसमें गोपाद्रि (ग्वालियर) में उस नामका एक पुत्र उत्पन्न हश्रा था, जो बड़ा ही रूप- समय वीरमदेवके राज्यका समुल्लेख किया है। पान, दानी और जिनगुरुके चरणाराधनमें तत्पर वीरमदेवराज्य सं० १४६६ से कुछ बादमें भी रहा था। दूसरी पत्नी लक्षणश्री भी सुशीला तथा पतिव्रता है। इससे उसके राज्यकालकी सीमा सन् १४०५ थी और तीसरी कोशीरा गुणवती एवं सती थी। इसी (वि० सं० १४६२)से पूर्व सन् १४१५ (वि० सं०१४७२) तरह सर्वगुणसम्पन्न कुशराजने श्रुतभक्तिवश उक्त तक जान पड़ती है । इसके बाद सन् १४२४ (वि० यशोधरचरित्रको रचना कराई थी। उक्त ग्रंथमें राजा सं० १४८१) से पूर्व वीरमदेवके पुत्र गणपतिदेवने यशोधर और रानी चन्द्रमतीका जीवनपरिचय राज्यका संचालन दिया हुआ है। यह पौराणिक कथानक बड़ा ही कि पद्मनाभने स. १४०५ से सन् १४२५ के मध्यकालप्रिय, और दयाका स्रोत बहानेवाला है। इसपर में किसी समय यशोधरचरित्रकी रचना की है।