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________________ ८४ अनेकान्त वर्ष १०] इस पञ्चाध्यायीमें अभी सम्यक्त्वका ही प्रकरण और ८ बजेसे ११ बजेतक रसको साफकर खीर बनाते चलरहा है कलसे संवेगगुणका वर्णन चालू है। संवे. रहे, बनाते-बनाते मध्याह्नकी सामायिकका वक्त हो गया गका अर्थ धर्म और उसके फलमें सातिशय अनुराग मोचा कि सामायिक करली जाय बाद भोजन किया होना है। पंच परमेष्टियोंमें अनुराग होना भी संवेग जाय । सामायिकके बाद भोजनके लिये बैठे तो बाईही है। यहां अनुरागका अर्थ विषयेच्छा नहीं है। आप जी पहले पूड़ी परोसने लगी, हमने कहा खीरके जिनेन्द्रदेवके दर्शन करने मन्दिर आते हैं। इसमें बनानेमें हम लोगोंने ३ घन्टे खर्च किये सो फोकटमे आपके क्या विषयेच्छा है ? विषयोंकी इच्छा घटाने जावेंगे | पहले खीर दो। बाईजीने थालियोंमें खीर के लिये ही तो आप मन्दिर आते है। समन्तभद्र- परोस दी। हम लोग अभिलापाकी तीव्रतासे उसे गर्म स्वामो भगवान महावीरका स्तवन करते हुए युक्त्यनु- ही खाने लगे, बाईजीन बहुत रोका, ठन्डी होजाने शासनमें कहते है दो तब तक एक-दो पूड़िया खालो । पर आसक्ति "न रागान : स्तोत्र भवति भवपाशच्छिदि मुना, तो उसी ओर लगी हुई थी। हम दानाने खीरका एक न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता " एक ग्राम मुंहम दिया कि दो मक्खियां लड़ती भगवन ! मैन जो आपका यह स्तवन किया है सो लड़ती आई और हमारी थालीमे और एक दूसरी रागवश नहीं किया है। आप संसारके पाश-बन्धनको मोतीलालकी थालीम आगिरी । अन्तराय होगया, छेदन करनेवाले है। आपमे राग करनस विषयकी हम दोनों ऐन ही उठ गये । विश्वास हुआ कि विपपूर्ति क्या हो सकेगी ? वीतरागका दशन करना यांकी अभिलापा करनेसे उनकी प्राप्ति नहीं होती। और मुनिके लिये भक्तिपूर्वक आहार देना मोक्ष- अब एक उदाहरण सुनो जहाँ बिना अभिलापा किये मार्ग है-इन दोनों हो कार्योसे मोक्षमागमे सद्यः पदार्थ मिल जाते है । मैं तो अपन-बीती ही आपप्रवेश हो सकता है । संवेगका एक अथ मंमार-भी- को अधिकतर सुना देता हूँ । इसमें मेरी आत्म-प्रशंमा रुता है । संसारसे भय खाना बुद्धिमानोंका कत्तव्य न ममझना, नहीं, कहो तो दृमरेका नाम ले दिया है। लेकिन संमारसे भय तो तब हो न, जब उसकी करूगा। नैनगिरकी बात है। हम दस-पांच आदमी विषमताका ध्यान किया जाय । ससारके स्वरूपका बैठे शास्त्रचचा कर रहे थे, परम्परमें चर्चा चल पड़ी जैसा-जैसा चिन्तन किया जाता है वैसा-वैसा ही कि अमुकका पुण्य अच्छा है। एकने कह दिया कि उससे भय होता जाता है। नरकादि गतियोंमे कैसा वीजीका पुण्य सबसे अच्छा है। इन्हे मनचाहीं क्या दुःख होता है, जरा इस बातको सोचो तो वस्तुएँ प्राप्त होजाती है। एक बाला यदि इन्हें आज मही. अभी रोमांच निकल आवेंगे। हम सांसारिक भोजनके पहले यहाँ अंगूर मिल जायं तो हम जानें पदार्थोकी अभिलाषामें इतने अधिक व्यस्त रहते है इनका पुण्य सबसे अच्छा है । मुझसे न रहा गया। जिसका कि कुछ ठिकाना नहीं। पर अभिलाषा मैने कहा, यदि उदय होगा तो यहीं मिल जावंगे। करनसे विषयों की प्राप्ति होजाती हो मोबात नहीं। उसने कहा, यहीं और अभी भोजनके पहले मिलना मेरा अनुभव तो ऐमा है ज्यों-ज्यों विषयोंकी अभि. चाहिये, मैने फिर भी कहा, यदि होगा तो कौन देख लाषा की जाती है त्यों-त्यों वे दुलभ होते जाते है। प्राया। मैं भोजन करने बैठा ही था कि इतनेमें बरुआसागरकी बात है। मैं और मोतीलालजी दोनों अयोध्याप्रसाद दिल्लीसे सागर होने हुवे रेशन्दीगिरि थे। मनमें अभिलाषा उत्पन्न हुई, रसखीर खायें। पहुँचे और बोले वर्णीजीने भोजन ना नहीं कर लिया। मुलचन्दजीसे रस बुला देनेको कहा। उन्होंने बहत- मै अंगूर लाया हूँ। भाग्यकी बात है उस जंगलमें सा रस बुला दिया। हम दोनोंको रसखीर खानेकी भी बिना इच्छा किये ही अंगूर मिल गये। इससे अभिलाषा थी इमलिये मन्दिरसे जल्दी आगये यह अनुभव होता है कि पदार्थोंकी अभिलाषासे ही
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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