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________________ ४३० अनेकान्त [वर्ष १० बहत्त्रयं लघुत्रय चूलिकाप्रकरणं चेसि । तेषा- नोपपद्यते तथा प्रमाणस्यापि प्रत्यक्षतामन्तरेण तत्प्रतिभासिनोऽथस्य प्रत्यक्षता न स्यात् । करणमनिविषमत्वान्मन्दधियानगन्तुमशक्यत्वात्तद् बुद्ध्यु.. वादित्येतावति साधने अदृष्टन व्यभिचारः, त्पादनाथे तदर्थ मुद्धृत्य धागनगरीवासनिवासिनः अज उक्त गुणत्वं सति अदृष्टानुयायोति । तथापि श्रीमन्माणिक्यनन्दिभट्टोरकदेवाः परीक्षामुग्याख्य सति सन्निकर्षण व्यभिचारः, अतः उक्त प्रत्यक्षार्थे प्रकरणमारचयाम्बभवः । तद्विवरीतमिच्छवश्रामल्ल इति । अथान्तरानपेक्ष', इत्येतावति साध्ये घटाध्वनन्तवीर्यदेवास्तदादो नास्तिकत्वपरिहार-शिष्टा- दिभिः सिद्धसाध्यता स्यात्, तत उक्त सजातीयेति । चारपरिपालन-पुण्यावाप्ति-निष्प्रत्यूहशास्त्रव्युत्पत्त्या तस्मिन्नपि उच्यमाने पुरुषान्तरविज्ञानेन सिद्धसाध्यता दिलक्षणं चतुर्विधफलमभिलषन्तो नतामरत्यादि स्यात्' तनिषेधार्थ स्वातिरिक्त । सजातीयाथान्तराश्लोकमेकं रचयन्ति स्म । नपेक्षग्रहणेपराथोनुभवनेन सिद्ध माधनता प्रतिपद्यते, उक्त सन्दभसं कई महत्वपूर्ण बातोपर प्रकाश तत्परिहाराथें स्वाभावसनग्रहणं साध्य। करणत्वापड़ता है। यथा-जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रके दिति साधने उच्यमान कुठारादिना व्यभिचारः.तत्परिलिए कांब, गमक, वादी और वाग्मी ए चार विशे. हाराथे प्रत्यक्षार्थगुणत्व सति इत्युच्यते । तावत्युच्यषा प्रसिद्ध थे. वे ही चारों श्रीभटाकलदेवके लिए मान अहण्टेन शक्तिना व्यभिचारः, तत्परिहारार्थ भा प्रयुक्त होते थे। श्रीअकल देवने मातमलप्रकरण अदृष्टानुयायिकरण त्वादित्युच्यत । अस्मिन्नपि उच्यरचे थे। श्री माणिक्यनन्दि आचाय धारानगरोके मान चक्षुरादिना व्यभिचारः, तत्परिहारा प्रत्यक्षार्थनिवामो थे आदि । जहां तक मैं जानता है कि अभी गुणत्व सति इत्युच्यते ।' नक इतना स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र नहीं मिला है जिसमें पाठक देखेंगे कि किस प्रकार एक-एक पदकी श्री माणिक्यनन्दिके धारानिवासी हानका स्पष्ट सार्थकता बताई गई है। विना इतने स्पष्टोकरगाके कथन हो। मूलग्रन्थकी पक्तिका प्राशय ही समझम नहीं प्रमेयरत्नमालाका यह टिप्पण अष्टसहस्रीके आसकता है। समान ही प्रत्येक पदका अर्थ अत्यन्त सरल शब्दों (२)तोसर समुद्दश्यक ६०वं सत्रके 'रसादेकसाके द्वारा स्पष्ट करने वाला है और ग्रन्थगत अनेक मध्यनमानेन' इस पद पर टिप्पण निम्न प्रकार है:गृढ ग्रन्थियोंके अर्थका प्रकट करने वाला है। जिस 'अन्धकारावगुठित प्रदशे आस्वाद्यमानो रसो के २-१ नमन नीचे दिये जाते है: धर्मी स्वसमानसमयकारण कार्यो भवति, एवंविध()प्रमेयरत्नमालामें 'प्रदोपवत्' समु०१, सूत्र रसत्वात्साम्प्रतिकरसवत्, इति रूपरसयोः एकसाम१२ की टोकामे लिग्बा हे कि "इद मत्र तात्पर्यम् प्रयनुमानं इदानी रूपानुमानं विवादापम्ने मातुज्ञानं स्वावभासने स्वातिरिक्तसजातोयाथोन्तरापेक्ष लिंग रससमकालीनं रूपमस्ति एकसामग्रयधीन स्वात्संप्रतिपन्नरसवत् पूवरूपक्षणसजातीयमुत्तर प्रत्यक्षार्थगुणत्वे सति अदृष्टानुयायिकरणत्वात्प्रदीप- वार भासुराकारवत् ।” इस पर जो टिप्पण है, वह इस रूपक्षण जनयन्नव विजातोयमुत्तररसक्षणं जनयति कारण क्षणत्वात, अनुभूतरसक्षणवत्, आस्वाद्यमानो प्रकार है: रसः स्वसमानकालीनपूर्वरूपक्षणसहकृत-समन्तररस'प्रदीपवत' इत्युक्त प्रदीपरय द्रव्यत्वेनागुणत्वात् क्षणजन्यः कार्यक्षणत्वात अनुभूयमानरसक्षणवत् ।' साधविकलो दृष्टान्तः, अतः उक्त भासुराका- (३) 'आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः' यह वत । यथैव हि प्रदीपस्य प्रत्यक्षता प्रकाशतां वा तीसरे समुद्देश्यका ६६ वां सूत्र है। इसके ऊपर विना तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य प्रकाशता प्रत्यक्षता वा टिप्पण इस प्रकार है:
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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