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________________ प्रमेयरत्नमालाका पुरातन टिप्पणा (ले०-श्री पं० हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री) आजसे ठीक ३० वर्ष पहले, जब कि मैंने स्वयं उन्होंने 'परीक्षामुखपंजिका' नामसे उल्लिखित श्रीमान् स्वर्गीय पं० घनश्यामदास जी जैन न्यायतीथे- किया है। से प्रमेयरत्नमालाका पढ़ना प्रारम्भ किया था, तब वे मूलग्रन्थके एक-एक पदके अर्थका व्याख्यान ललितपरके बड़े मन्दिरसे प्रमेयरत्नमालाकी एक हस्त- करने वाली रचना पंजिका कहलाती है। यह परीक्षालिखित प्रति लाए थे और उस प्रतिपरसे हो हम मुग्वपंजिका 'प्रमेयरत्नमाला' नामसे प्रसिद्ध है। लोगोंको पढाया करते थे। उक्त प्रति सोलहवीं इनकी रचना अत्यन्त प्रसन्न एवं प्राञ्जल भाषामें हुई शताब्दीकी लिखी हुई एवं अत्यन्त शुद्ध थी। उस है। फिर भी न्यायके कतिपय गूढ़, और दुरूह प्रतिमें हासियोंपर किसी अज्ञात नाम आचार्यका पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-स्पष्टीकरणकी आवश्य. एक अलब्धपूर्व टिप्पण भी लिखा हुआ था। कता अनुभव करके किसी अज्ञात नामके विद्वानने स्वर्गीय पडितजीकी प्रेरणानसार मैंने पढ़नेके साथ लगभग मूलग्रन्थके बराबर ही एक टिप्पण लिखा ही मुद्रित पुस्तकपर नम्बर देकर कापियोंपर उसे जिसमें टीकाके और मूलसूत्रों के प्रायः प्रत्येक पदका पृथक लिख लिया था। इन दिनों जब वीरसेवा- अत्यन्त सरल भाषामें अथे स्पष्ट किया गया है। मन्दिरसे टिप्पण न्यायदीपिका और आप्तपरीक्षा- यहां पर नमनेके तौरपर उक्त टिप्पणके कल के हिन्दी अनुवाद-सहित संस्करण प्रगट हुए, तब अंश उद्धृत किए जाते है, जिससे उसके महत्व और मेरा ध्यान प्रमेयरत्नमालाकी ओर गया और वर्षो वैशिष्ट्यको पाठकगण जान सकें। टिप्पण के प्रारम्भ तक दृष्टिसे ओझल रहे उस टिप्पणको मैंने निकाला। में एक लम्बा गद्यभाग है, जिससे कई नवीन बातों श्री भट्टाकलङ्कदेवके न्यायके ग्रन्थों का अवगाहन पर प्रकाश पड़ता है और जिसकी रचना-शैलीको कर श्री माणिक्यनन्दि आचाय ने परीक्षामुख देखकर ऐसी कल्पना करनेको जी होता है कि कहीं नामक एक सूत्रग्रन्थ रचा' । यह सूत्रग्रन्थ तत्वाथ- यह टिप्पण भी अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघसमन्तसूत्रके समान ही विद्वानोंद्वारा अत्यन्त समाहत भद्रका न हो । उक्त गद्यभाग इस प्रकार हैं:हुधा और तत्त्वार्थसूत्रके समान ही इसपर टीका इह हि पुरा स्वकीय-निरवद्य-विद्यासंयमसंपदा और भाष्यप्रन्थ रचे गये । आचार्य प्रभाचन्द्रने गणधर-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतकेवलि-सूत्रकृन्महर्षीणां महि. सोलह हजार श्लोक-प्रमाण 'प्रमेयकमलमाण्ड, मानमात्मसाकुर्वन्तोऽमन्दता निरवद्यस्यावाद विद्यानामसे विस्तृत भाष्य लिखा । उक्त भाष्यके अत्यन्त नत्तकीनाट्याचार्यकप्रवीणा: सकल तार्किकचचटा. विशाल और गम्भीर होनेके कारण मध्यम रुचि मणिमरीचिमेचकितचरणनवकिरणा:, कवि. वाले शिष्योंके हितार्थ श्री हीरपके अनुरोधसे शान्ति- वादि-वाग्मित्वलक्षणचतुर्विधपाण्डित्यजिज्ञानपिपापेणके लिए श्री अनन्तवीर्य आचार्य ने-जो अपने को साजिहासया विनयविनतविनेयजनसाहनिजानलघु अनन्तवीर्य लिखते है लगभग ढाईहजार श्लोक भवाः श्रीमदकलङ्कदेवाः प्रादुरासन् । तेश्व सप्त प्रमाण 'प्रमेयरत्नमाला' नामकी टीका रची, जिसे प्रकरणानि विरचितानि । कानि तानीति चेदच्यत 1-अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्धं येन धीमता। -वैजेयप्रिय पुत्रस्य होरपस्योपरोधतः । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने । शान्तिषणार्थमारब्धा परीक्षामुख पञ्जिका ॥ २-प्रभेन्दुवचनोदार चन्द्रिकारप्रसरे सति । २-कारिका स्वल्पवृत्तिस्तु सूत्र सूचनकं स्मृतम । मादृशाः कनु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ॥३॥ टीका निरन्तरं व्याख्या पंजिका पदजिक टि.
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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