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सोलहवीं शताब्दीके दो अपभ्रंश काध्य
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
देशभाषा अथवा अवहट्ट या अपभ्रंशभाषा अथवा जैसवाल कुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करने विक्रमकी ८ वीं शताब्दीसे १६ वीं शताब्दी तक के लिये 'तरणि' (मर्य) था। इमकी माताका नाम कितनी लोकप्रिय रही है, इसे बतलानेकी आवश्य- 'दीवा' था । जैसाकि नागकुमार चरित प्रशस्तिकी कता नहीं है । इसके अभ्यासी साहित्यिक जन निम्न पक्तियोंसे प्रकट है:सुपरिचित है । इसकी लोक-प्रियताका इससे "तहिं णिवपइ पंडिउ मत्थखणि, अधिक और क्या सुबूत होसकता है कि इस भाषा
मिरि जयसवालकुलकमलनरणि । में १६ वी १७ वीं शताब्दी तक ग्रन्थरचना होती
इक्वाकुवं समहियलिवरिट्ट, रही है । इम भापाने हिन्दी भाषाको केवल जन्म ही
बुह सूरा गंदणु सुयगरिछ । नहीं दिया किन्तु उमके विकासभे भी बहुत कुछ
उप्पएणड दीवा उयरि खाणु, योगदान दिया है । आज जबकि हिन्दी राष्टकी
बुह माणिकुणामें वुहहिमागु ।' भाषाके गौरवको प्राप्त कर रही है तब उसकी जनक भाषाका साहित्य और इतिवृत्तके लिखे जानकी नागकुमार चरित्रके आदिके दो पत्र नहीं है। महती आवश्यकता है । इस भाषाके अप्रकाशित इसलिये उक्त ग्रन्थका निर्माण करते समय कवि कितने हा ग्रन्थोंका परिचय अनेकान्तमें दिया जा कहांका निवासी था यह मालूम नहीं हो सका, पर चका है। आज भी दो नवीन अप्रकाशित अपभ्रश इतना कहा जा सकता है कि वहांके जिनमन्दिर भाषाके अमरसेनचरित और नागकुमामारचरित में निवास करते थे जिसमें भगवान आदिनाथकी नामके इन ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा दिव्य मूर्ति विगजमान थी। वह स्थान कहां था
उसक सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक तो कुछ नहीं कहा इनमें से प्रथम प्रन्थका नाम 'अमरसेन चरित' जा सकता, किन्तु अमरमनतरितके बनाते समय वे है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि उक्त ग्रन्थमे मुनि 'रोहियालिपुर' रोहतकक निवासी थ । जो आज भी अमरसेनके जीवन परिचयको अङ्कित किया गया यह नगर उमी नामसे उल्लेखित किया जा रहा है। है। मनिअमरसेन कौन थे और उन्होंने अपने यह नगर अाज भी जन-धनस सम्पन्न है। जान जीवनर्म आत्म-साधनाके साथ क्या कछ लोकप्रिय पड़ता है कि सुनपतकी तरह रोहतकमें भी भट्टारकीय कार्य किये है ? यह इम लेखका विपय नहीं है। गद्दी थी, वहांक पंचायती मन्दिरमे आज भी एक अतः इसके सम्बन्धमें कुछ न लिग्व कर इतना विशाल शास्त्रभंडार है जो भट्टारकीय परम्पराकी लिखना ही पर्याप्त होगा कि इस प्रथकी यह एक स्मृतिका द्योतक है । रोहतक लिखे हुए अपभ्रंश खण्डित प्रति आमेर शास्त्र-भंडारमें उपलब्ध है भाषाके कई ग्रंथ मर देग्वनमे आए है इममें वहांक जिसकी पत्र संख्या ६६ है, प्रति बहुत ही जीर्ण-शीर्ण
भडारमें अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थों का संग्रह रहना अवस्थामें है और खंडित है-उसमें प्रथम पत्र नहीं
बहुत कुछ संभव है। और जबकि वहां भो ग्रन्थहै। प्रन्थमें सात सन्धियां है जिनमें उक्त चरित्रका रचना उस भाषामें हुई है तब इसमें सन्देहको चित्रण किया गया है।
कोई स्थान ही नहीं रहता। इन प्रथोंके कर्ताका नाम कवि मणिक्कराज कवि माणिक्कराजने अमरसनचरितमे अपनी है, जो 'बुहसूरा' बुधसूराका पुत्र था। यह जायस. गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाई है: