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________________ किरण ५ जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य १६३ परन्तु सांसारिक भाषामें एक राजाके पापों या गल- अंक तो बहुत ही छोटा है कर्म वर्गणाओंकी संख्या तियोंका कटु फल उसके सारे देशको भुगतना पड़ता हमारी संसारी भाषामें असंख्य, अगणित या अनहै ऐसा कहा जाता है। यदि सूक्ष्म दृष्टिसे इसका तानंत है। फिर भी उनकी संख्याकी एक कोई खास विश्लेषण किया जाय तो अंतमें यही मिलेगा कि गिनती विराट विश्वकी गणनामें अवश्य है; क्योंकि वह सबका सब फल उन सारे लोगोंके अपने कर्मोका सारे संबन्धित कार्य गणितके अंकोंकी गणनाके ही था जो एक खास तरहकी वर्गणाओंमे निर्मित समान ही निश्चित और स्थायी या फलवाले पूर्ण शरीरके कारण एक-सी दशा, जगह, देश या स्थान व्यवस्थित होते है। एक ही नक्षत्र में और एकसां इत्यादिमे जन्म लिए हर है और फिर सबको परिस्थितियोंमे जन्म लिए दो मानवोंका भाग्य प्रायः एक-सी परिस्थितिका सामना करना पड़ा या फल एकसा होता है। जो कुछ विभिन्नता होती है वह भुगतना पड़ा। इनमे कुछ फर्क होने तथा और दूसरी बातोंमें फर्क कोई काम या बात सहसा एकाएक नहीं हो होने की वजहसे ही होता है। इत्यादि । विराट विश्वजाती-उसके होनेका बीज बहत समय पहलेस रूपी शरीरका हर एक जीव एक अंग है चाहे वह बोया हुआ रहता है। आज हम किसी मनप्यके भले ही तुच्छ-स-नुच्छ क्यों न हो। हर एकका कोई साथ बात कर रहे है या कोई व्यापार करके लाभ खास काय, कतव्य, उपयोग और उद्देश्य (use & उठाते है वह मनुष्य कितने वर्षों पहले उत्पन्न हुआ purpose) होता है। कुछ भी या कोई भी व्यथे और था। आज जो अन्न हम खाते है वह भो कितने बंकार नहीं। हमार भाग्यके बननेमे ता प्रथमतः हमी समय पहले उत्पन्न किया गया था। और न जाने जिम्मदार है पर निमित्त और उसकी सिद्धि या कितने लोगों द्वारा कहां कहांसे लाकर हमारे पास गठनमें सभीकी सहायता सन्निहित है। इस संबन्ध पहुंचा, तब घरमे उसे पकाकर भोजन बनाया गया और स्थितिसे तो छुटकारा केवल तभी मिलता है जब और हमे खानको मिला इत्यादि। यदि बहत ही जीव सांसारिक जीवन-मरण छोड़कर मोक्ष लाभ सूक्ष्मरूपस और गहरे गहर पैठकर देखा जाय तो कर लेता है। यह सब सिलसिला अनादिकालसे ही अपने स्वाभा- देखने में तो सभी मनुष्य बाहररो एकसां मनुष्य विकरूपस चलता चला आता मालूम होगा। हम है-पर हर एकका रूप, स्वभाव, चहरा माहरा, एक रुपयेकी काई चीज विलायतकी बनी यहां बोली, चाल, लिखनेके अक्षर, शब्द उच्चारण, भाव खरीदत है उसमें न जान कितनाका हिस्सा भाग या सब कुछ भिन्न भिन्न है। सबकी वर्गणाओंमें इतनी भाग्य सन्निहित है-यदि विशदरूप में देखा जाय काफी विभिन्नता है कि एक जीव जो जन्म लेनेवाला तो संसारके अधिकमे अधिक लोगोंका हिस्सा किसी है मंसारक सार मनुष्योंसे केवल एकके ही वीर्यमें एसी वस्तुमे सन्निहित मिलेगा। सभी एक दसरस उसके लिए अपनी वर्गणाओंकी समानता या अनरूसम्बन्धित है। पता मिलेगी और वह वहीं जायगा। दो स्थान एक ऊपर सजाककी बीमारीवाले जीवात्माके ही समान उसके लिए नहीं है-या यदि णिक रूपमें बारेमे कहा गया है। यदि मान लें कि उसकी कार्मा कहीं एसी बात हो भी जाय तो परिवर्तन-द्वारा वह वर्गणाओं की संख्या सौ है तो जहां उसकी वगेणा- क्षणिक ही रहेगी। अन्यथा तो इस तरह जन्म लेने ओंकी सबसे अधिक संख्यामें समानता होगी उसी वाला जीव बीच में ही लटका रह जायगा जब तक पुरुषके वीर्य में उसका गमन होगा। जैसे किसीके एकान्त समानता न प्राप्त हो । मानवयोनि ही क्यों, ६६ वर्गणाओंकी समानता है-किसीके ६६, किसीके सारे विश्वमें देव, गंधर्व, मानव, जीव, जन्तु, ६५ तो वह ६६ वालेके वीर्यमें ही जायगा। पर यह कीड़े, मकोड़े, पड़, पौधों इत्यादि सभी अनंतानंत
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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