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साहित्य-परिचय और समालोचन
[इस स्तम्भमें समालोचनार्थ आये नये ग्रन्थादि साहित्यका परिचय और समालोचन किया जाता है । समालोचनाके लिये प्रत्येक ग्रन्थादिकी दो-दो प्रतियां पाना जरूरी है।
-सम्पादक] जैनाचार्य-लेखक पं० मूलचन्द्रजी, वत्सल, उसीके आधारमं दूसरे नेमिचन्द्रने अपनी 'जीवदमोह। प्रकाशक, दि० जैन पुस्तकालय, सूरत । पृष्ट तत्त्वप्रबोधिका' नामकी संस्कृत टीका लिखी है। संख्या १६८ । मूल्य, एक रुपया दस आना।
आचार्य अभयचन्द्रने अपनी मन्दप्रबोधिका टीकामें इस पुस्तकमे २८ जैनाचार्यों और उनकी कृतियों- गोम्मटसारकी एक और 'पंजिका' टीकाका उल्लेख का मंक्षिप्त परिचय दिया हुआ है। भगवान महा. किया है और वह इस प्रकार है:-'अथवा सम्मूवीरके बाद जैनधर्मके अहिंसादि सिद्धान्तोंका प्रचार च्छेनगोपपात्तानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मटसारकरनेवाले अनेक जैनाचार्य, विद्वान् , राजा, और पंचिकाकारादीनामभिप्रायः ।" इम पंजिका टीकाका राज्यमंत्री तथा नगर सेठ आदि प्रसिद्ध व्यक्ति हुए उल्लेग्व मेंने सन् १६४४ के मार्च महीनेके 'अनेकान्त' है। उनके सम्बन्धमें एक प्रामाणिक इतिवृत्तक लिग्ब वर्ष ६ किरण ८ के पृष्ठ २६४ पजके दूसरे कालमके जानेकी बड़ी आवश्यकता है । वत्सलजीने इस नीचे दुसरे फुट नोटमे किया था। दिशामें जो प्रयत्न किया है वह अभिनंदनीय है। इसके अतिरिक्त दशवी शताब्दीक आचार्य परन्तु प्रस्तुत पुस्तकमें प्रफ आदि प्रेस-सम्बन्धि अमृतचंद्रका समय १२ वीं शताब्दी बतलाया है जो अशुद्धियोंके अतिरिक्त कुछ ऐसी अशुद्धियाँ भी पाई ठीक नहीं है। तथा आचार्य विद्यानन्दका परिचय जाती है जो खटकने योग्य है । ऐसी पुस्तकमे ऐति- देते हुए उन्हें भी राजावली कथाक आधारोंपर १६ हासिक अशद्धियाँ नहीं रहनी चाहिये । बतौर उदा- वी शताब्दीक विद्यानन्द की घटनाओंके साथ हरणके यहाँ एक-दो अशुद्धियोंका दिग्दर्शन पाठ- सम्बद्ध कर दिया है। देवन्द्रकीतिने अपने शिष्य कोंकी जानकारीके लिये नीचे दिया जाता है:- बिद्यानन्दकी तारीफ की है न कि उन तार्किव
पृष्ठ ५३ पर प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्र- विद्यानन्दकी। इसी तरह शुभचन्द्रका परिचय देते वर्तीकी कृतियोंका परिचय कराते हुए उनकी कृति हुए, भट्टारक विश्वभूषणकी काल्पनिक कथाके गोम्मटसारकी चार टीकाओंका समुल्लेख किया है आधार पर बिना किसी जांच पड़तालके, भतृहरि,
और लिखा है कि-चामुण्डरायकी कर्नाटक-वृत्ति, सिन्धुल राजा मुञ्ज और शुभचन्द्रको सम-सामकेशववर्णीकी संस्कृत टीका, और अभयचन्द्रकी यिक भी प्रकट किया गया है जिनमे शताब्दियोंका मंदप्रबोधिका और पं० टोडरमलकी सम्यग्ज्ञानचन्द्रि- अन्तर है। यह सब कथन ऐतिहामिक दृष्टिस का, ये चार टीकाएँ है।
अंमगत है, और वह इतिहासकी अनभिज्ञताको इसमें चामुण्डरायकी वृत्तिको कनोटकी बतलाया व्यक्त करता है। ऐसी पुस्तकोंमे इसप्रकारकी त्रुटिगया है, जो ठीक नहीं है, चामुण्डरायने गोम्मट- योंका रह जाना अवश्य खटकता है । आशा है सारपर कोई कर्नाटक वृत्ति बनाई हो, इसका कोई लेखक महानुभाव दूसरे संस्करणमे आवश्यक स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता और न गोम्मटसार सुधार करनेका प्रयत्न करेंगे।-परमानन्द जैन । कर्मकाण्डकी ६७२ नं० की गाथासे ही इस बातकी कोई सूचना मिलती है। दूसरे केशववर्णीकी टीका १ देखो अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ मे प्रकाशित संस्कृतमें नहीं है वह कर्नाटक भाषामें लिखी गई है, डा० ए० एन० उपाध्येका लेख ।