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प्राखिर यह सब झगड़ा क्यों! [ले० श्री बा० अनन्तप्रसाद जैन बी० ए०, बी० एस-सी० इंजीनियर ]
यों तो जितने मनुष्य उतने ही मत, परन्तु धर्मों की संख्या काफी बड़ी होगई है। केवल भारतमें सामूहिक रूपमें किसी एक विशेष प्राचार. ही प्रचलित धों, मत-पतान्तरों, सम्प्रदायों और मान्यव्यवहार एवं सिद्धान्तको माननेवाले अपनेको ताओंकी गिनतीका अंदाजा लगाना प्रायः असंभव-सा अलग-अलग सम्प्रदाय या धमका अनुयायी मानते ही है। भारतीय दर्शन एक विशेषता रखते हैं। प्रायः और कहते हैं । संसारकी वर्तमान सामाजिक सभी धर्म विभिन्न हाते हुए भी अपनी मान्यताओ व्यवस्थाओंमें कोई भी व्यक्ति जन्मसे ही किसी धर्म सिद्धान्तों, तर्कशैली एवं आचार-व्यवहारमें बहुत या सम्प्रदायका अंग होजाता है। जो धर्म उसके बड़ी समानता रखते हैं। फिर भी आपसी असहयाग बाप-दादे मानते आये है, वही उसका भी धर्म हो या झगड़ा इसीलिये है कि हर एक अपनेको दृम्रेसे जाता है। बाइको उसी कुटुम्न या समाजमें रहते २ भिन्न और ऊंचा समझता और वतेता है तथा दूसरों उम व्यक्तिकी प्रवृत्तियां,विश्वास,मान्यतायें,धारणायें को हीन दृष्टिसे देखता है। यही बस ठीक नहीं।
और गति नीति तथा व्यवहार मभी कुछ सांचे में यदि सभी भारतीय दर्शनोंका समन्वय किया जाय ढले जैसे हो जाते है। विभिन्न धर्मावलम्वियोंने तो किसी प्रश्न या विचारणीय विषयको पूर्णरूपसे अपने धर्मको श्रेष्ठ और दूसरों के धर्मोको गलत समझनेके लिए हर एक दृष्टिकोणको अलग-अलग या होन कह-कह कर एक ऐसा वातावरण रूपसे समझनेकी आवश्यकता होगी। मदियोंसे कायम कर रखा है कि जो भी इसमें जैनी कहते है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा प्रवेश करता है, वह भी उन्हीं विरोधी भावनाओंको ही दसरे भी कहते हैं। सब अपने अपनेको सबसे दृढ़तासे अपना लेता है । उपर्युक्त धार्मिक शिक्षा- अधिक ठीक या एकदम ठीक और दूसरोंको गलत
ओके प्रभावने इस विरोधको सदा बढाया एवं कहते है। सभी लोक-कल्याण और व्यक्ति तथा पुष्ट ही किया है । शक्ति सालो या कमजोर राजाओं समाजकी उन्नतिका दावा करते हैं और कहते हैं कि सम्राटों और नरेशोंने या उनके मंत्री, प्रशंसक केवल उन्हींके धर्मशास्त्रोंमें बतलाए मागेसे चलकर
और खशामदियोंने राजाओं तथा राज्यसत्ताका कोई भी मनुष्य उन्नति कर सकता है। हर एक यह प्रभाव एवं दबदबा बनाए रखने या अन्य प्रकारम भी कहता है, कि जो ज्ञानवान मानव सचमच धर्मस्वार्थ साधनके लिये तरह-तरह के शास्त्रोंकी तत्वांको जानकार होगा, वह उसीके धामिकतत्वों अपने मनोनुकूल व्याख्यायें व्यवस्थायें और परिभा- को ठीक मानेगा और यदि कोई उसे स्वीकार नहीं पायें समय-समयपर प्रचलित की-कहीं कहीं तो
करता है तो उसका मतलब यह है कि उसका ज्ञान काफी अन्याय अत्याचारके द्वारा भी गज्यकी इच्छा- अपूर्ण है या विकृत है, और ज्ञानके विकासके साथ ओंका प्रचार किया गया। ये सभी विश्वास समय
जब सब बातोंको वह और अधिक समझने लगेगा के साथ जोर पकड़ते पकड़ते रूढ़ियों में परिणत हो तब स्वय उसके धमकी श्रेष्ठता स्वीकार कर लेगा। जब गये और लोगोंने उन्हें ही स्वाभाविक मानकर सारा वास्तवमें बात ऐसी ही है, और ईमानदारीके साथ जोर लगा दिया तथा अब भी लगाते रहे हैं। लोग सचमुच ऐसा ही समझते और मानते हैं तब
इस तरह संसारमें फैले मत-मतान्तरों या फिर झगड़ा किस बात का ? सिवाय इसके कि