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________________ अनेकान्त [वर्ष १० १४२ हम अपनी ऐठ या अहंभावमें या अपनेको बड़ा व्यवहार करते हैं। यदि यह अज्ञान दूर होजाय तो और दूसरोंको छोटा समझते या कहते रहनेके लिये हम स्वयं अपने आप किसीके बहकावे या भुलावे. ही यह सब झगड़ा-रगड़ा या द्वेष- विद्वेष बढाते रहें में न पड़कर जो सच्चा, अच्छा एवं सर्वश्रेष्ठ होगा और कोई तथ्ययाअसलियत इसमें नहीं है। यह तो उसे जानलेंगे, चनलेंगे, पसंद तथा स्वीकार कर लेंगे केवल हमारी संकुचित एवं ओछी मनोवृत्तिका परि- और उसके अनसार काम भी करने लगेंगे। फिर तो चायकमात्र है। यदि सचमच लोककल्याण अभीष्ट ऐसे सभी लोग लोक-कल्याणमें सावधान एवं अपने है तो वजाय आपसी झगड़ रगड़े में शक्ति और और दूसरों को ज्ञानका लाभ करने-करानेकी तरफ ही समयका दुरुपयोग अथवा बर्बादी करनेके लोग उसे सचेष्ट होंगे और उमीमें सतत रचे-पचे रहेगे अपने अपने ज्ञानकी वृद्धिकी तरफ लगावें तो सचमुच ऐसा होनेपर रगड़ा-झगड़ा अपने आप खत्म हो धर्मका पालन भी हो और सबका तथा संसारका जायगा ज्ञानका उपार्जन और वृद्धि ही मुख्य ध्येय भला भी। रहेगा। अतःसंसार-देश-समाज-एवं धर्म और व्यक्तिकी मंसारमें या किमी भी देरामे हरएक प्राणी अपना सच्ची उन्नतिके लिये यह आवश्यक है कि हम जैन अपना अलग अलग म्वभाव, मत-व्यवहार, पसंद, वौद्ध, वैष्णव, वेदान्ती, आर्यसमाजी आदिका भेद- ढंग और काम करने के तरीके रखता है । यह भिन्नता भाव भलकर एक दुसरंकी बातोंको जाननेकी चेष्टा कभी मिटनकी नहीं। सारे संसारमें इस तरह काल, करें। इससे ज्ञानकी उत्तरोत्तर वृद्धिद्वारा विज्ञ ज्ञानो जलवायु और स्थान या प्रवृत्रि और भुकाबके समझने की शक्ति और माद्दा अर्जित कर लेनमें समर्थ कारण भी एक धम, एक रीति-व्यवहार या मान्यतायें हो सकेगा और फिर उसे जो ठोक जंचंगा उसे स्वयं हो ही नहीं सकतीं, तब फिर क्यों न ऐसा कियाजाय स्वीकार कर लेगा प्रारंभमें ही दूपमूलक झगड़े करके कि हम वजाय छोटी-छोटी बातोंमें ही ममय वर्वाद शक्तियोंका व्यर्थ हास कर देना तो कोई बुद्धिमानी करनेके सारे ममारमं सम्यक-जानकी बद्धि कर, जा नहीं कही जा सकती। यद्यपि अबतक बहुत दिनोंसे स्वयं ही मब प्रश्नों, शकाओं और गुत्थियों का यही होता चला रहा है पर गलन बात गलत ही समाधान करनवाला है। है चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न होजाय । अबतक श्वेताम्बर-दिगम्बरका झगड़ा या तेरापंथी-वीमहमने अपना संसारका एवं मानवमात्रका बड़ा ही पंथीका झगड़ा या जैनी-आर्यसमाजका झगड़ा तो भारीनकसान किया है। इसे-इसबातकी महत्ताको सचमुच व्यर्थका वितण्डावाद है। यह सब विभिन्नयदि हम अब भी समझले और सच्चे दिलसे दृढता- ताएँ तो एक-न-एक रूपमे सर्वदा रहेगी ही। लोग पूर्वक पुरानी गलत रीतियों, रूढ़ियों, धारणाओं एवं अपनी अपनी रुचि समझ एव मुविधाके अनुमार प्रणालियोंसे छुटकारा पा सके तो पुननिर्माण एवं समय समयपर क्षेत्र-काल-देश एवं आवश्यकताओं सच्चे उत्थानमें देर नहीं लगेगा। से मजबूर होकर हेर-फेर करेंगे ही, खामकर अज्ञानाहमारे अन्दर वही अनंत शक्तिमान आत्मा वस्था या कम ज्ञानको अवस्थामं दसराहो ही क्या विद्यमान है जो पहिले कभी था और ठीक रास्ता सकता है। इसलिये सभी धमक पौडतो. विद्वानों. पकड लेनेपर इसे शरीर धारण करना दुःख और गुरुओं और प्रचारकोंको अब यह चाहिये कि लोकमे अज्ञानका कारण न होकर अनंत सुख, ज्ञान और ज्ञानको अधिक-से-अधिक वृद्धिके लिये यत्न, चेष्टा, मोक्षका कारण हो सकेगा । अज्ञान अथवा मृढता- अध्यवमाय एवं श्रम करे | अपनी बातें आधिकाधिक वश हो हम मानव एक-दूसरेसे लड़ते है, एक रूपमे समझे और दृमरोंकी बातों को समझकर दूसरेको ऊँचानीचा समझते हैं और तदनुसार उनसे टड दिल एवं दिमागकं साथ तुलना करें ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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