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अनेकान्तकाद और स्व. पं. अम्बादासजी शास्त्री
[सागरमें एक कलशोत्सबके अवसरपर, जिसका प्रायोजन श्रीटीकाराम प्यारेलालजी मलैयाकी पोरसे संवत् १९७२ में हुआ था, हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसके संस्कृत के प्रिन्सिपल श्रीमान् निखिलविद्यावारिधि पण्डित अम्बादासजी शास्त्री भी पधारे थे और उनका बड़ा शानदार स्वागत हुआ था। उस समय प्रायोजित समामें शास्त्रीजीने जैनधर्मके 'अनेकान्तवाद' पर जो अपना प्रोजस्वी मार्मिक भाषण दिया था और जिसे सुनकर अच्छे-अच्छे विद्वान् मुग्ध हो गए थे उसे वर्णीगणेशप्रसादजीने हाल ही में प्रकाशित अपनी 'मेरी जीवनगाथा' नामकी पुस्तकमें संकलित और संग्रहीत किया है। उसीपरसे अनेकान्त-पाठकोंके लिए उपयोगी समझकर उसे यहां उद्धृत किया जाता है । इससे पाठकोंको सहज ही यह मालम हो सकेगा कि जैनधर्मके 'अनेकान्त' सिद्धान्तका गहरा अध्ययन करनेवाले उच्चकोटिक निष्पक्ष विद्वान् भी उसे कितना अधिक महत्व तथा ऊंचा स्थान प्रदान करते हैं और इसलिये जैनियोंको अपने सिद्धान्तोंको अजैन विद्वानोंके परिचयमें लानेको कितनी अधिक आवश्यकता है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं रहती। -सम्पादक]
पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, अन्यथा मंमार और पुण्य-पाप तथा उसके फलका सर्वथा लोप होजावेमोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि सर्वथा गा। कल्पना कीजिये, किसी आत्माने किसीके नित्य मानने में परिणाम नहीं बनेगा, यदि मारनेका अभिप्राय किया वह क्षणिक होनेसे नष्ट परिणाम मानोगे तो नित्य माननेमे विरोध आवेगा। होगया अन्यने हिंसा की, क्षणिक होनेके कारण हिंसा श्रोसमन्तभद्रस्वामीने लिखा है
करनेवाला भी नष्ट होगया बन्ध अन्यको होगा, 'नित्येकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते ।
क्षणिक होनसे बन्धक आत्मा नष्ट होगया फलका प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाण क्व तत्फलम् ॥' भोक्ता अन्य ही हुआ...इस प्रकार यह णिकत्वकी यह सिद्धान्त निविवाद है कि पदार्थ चाहे नित्य कल्प
कल्पना श्रेष्ठ नहीं, प्रत्यक्ष विरोध पाता है अतः मानो चाहे अनित्य, किसी-न-किमी रूपसे रहेगा ही।
केवल अनित्यकी कल्पना सत्य नहीं । जैसा कि यदि नित्य है तो किस अवस्थामें है ? यहाँ दो ही
कहा भी हैविकल्प हो सकते है या तो शुद्ध स्वरूप होगा या
'परिणामिनोऽप्यभावात्क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु । अशुद्ध स्वरूप होगा। यदि शुद्ध है तो सर्वदा शुद्ध तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणेमथापि कार्य वा ॥' ही रहेगा; क्योंकि सर्वथा नित्य माना है और इस बौद्धोंकी यह मान्यता है कि 'कारणसे कार्य सर्वथा दशामें संसार-प्रक्रिया न बनगी। यदि अशुद्ध है तो भिन्न है, कारण वह कहलाता है जो पूर्व क्षणवर्ती हो, सर्वथा संसार ही रहेगा और ऐसा माननेस संसार और कार्य वह है जो उत्तरक्षणवर्ती हो। परन्तु ऐसा एवं मोक्षकी जो प्रक्रिया मानी है उसका लोप हो माननेमें सवथा कार्यकारणभाव नहीं बनता । जब जायेगा, अतः सर्वथा नित्य मानना अनभवके प्रति कि कारण सर्वथा नाश होजाता है तब कार्यकी
उत्पत्तिमें उसका ऐसा कौन-सा अंश शेष रह जाता यदि सर्वथा अनित्य है ऐसा माना जाय तो जो है जो कि कार्यरूप परिणमन करेगा ? कुछ ज्ञानमे प्रथम समयमें है वह दूसरेमें न रहेगा और तब नहीं आता। जैसे, दो परमाणुओंसे द्वयणुक होता