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________________ किरण ४] अनेकान्तवाद और स्व०५० अम्बादासजी शास्त्री है यदि वे दोनों सर्वथा नष्ट होगये तो द्वयणुक अतः अगत्या मानना पड़ेगा कि आत्माकी ही किसस हुआ? समझमे नहीं आता। यदि सवथा अशुद्ध अवस्थाका नाम मंसार है। अब यहां पर असत्से कार्य होने लगे तो मृत्पिण्डके अभावमे भी यह विचारणीय है कि यदि मंसार अवस्था आत्मा घटकी उत्पत्ति होने लगेगो पर ऐसा देखा नहीं का कार्य है और कारणसे कार्य सर्वथा भिन्न है तो जाता, इमसे सिद्ध होता है कि परमाणुका सवथा आत्माका उससे क्या विगाड़ हुआ? उसे संसारनाश नहीं होता किन्त जब वह दूसरे परमाणुके मोचनके लिये जो उपदेश दिया जाता है उसका साथ मिलनेके सन्मुख होता है तब उसका सूक्ष्म क्या प्रयोजन है ? अतः कहना पड़ेगा कि जो अशुद्ध परिणमन बदल कर कुछ वृद्धिरूप होजाता है और अवस्था है वह आत्माका ही परिणमनविशेष है, जिस परमाणुके साथ मिलता है उसका भी सूक्ष्म वही आत्माको मसारमे नाना यातनाएँ देना है, परिणमन बदल कर वृद्धिरूप हो जाता है। इसीप्रकार अतः उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। जैसे जल जब बहुतम परमाणुओंका सम्बन्ध हो जाता है तब स्वभावसे शीत है परन्तु जब अग्निका सम्बन्ध म्कन्ध बन जाता है। स्कन्ध दशामे उन सब परमाणु- पाता है तब उष्ण अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, इस ओंका स्थूलरूप परिणमन होजाताहै। और ऐसा हानसे का यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार जलका पहले वह चक्षुरिन्द्रियके विषय हो जात है। कहनेका तात्पर्य शीतपयोयके माथ तादात्म्य था। उसी प्रकार अब यह है कि वे सब परमाणु स्कन्ध दशामे जितने थे उष्णपयोयके साथ तादात्म्य होगया परन्तु जलत्वउतने ही हैं, केवल उनकी जो सूक्ष्म पयोय थी वह को अपेक्षा वह नित्य रहा । यह ठीक है कि जलकी स्थूलभावको प्राप्त होगई । एवं यदि कारणसे कार्य उष्णपर्याय अस्वाभाविक है-'परपदार्थजन्य है सर्वथा भिन्न हो तो कार्य होना असम्भव हो जावं अतः हेय है। इसी तरह आत्मा एक द्रव्य है उसकी क्योंकि मंसारमें जितने कार्य है वे निमित्त । - जो संसार पर्याय है वह औपाधिक है उसके सद्और उपादान कारणसे उत्पन्न होते है । निमित्त ता भावम आत्माके नाना विकृत परिणाम होते हैं जो महकारीमात्र है पर उपादानकारण कायरूप परि. कि आत्माक लिये अहितकर है। जैसे, जब तक णमनको प्राप्त होता है । जिस प्रकार सहकारी कारण आत्माकी संभार अवस्था रहती है तब तक यह भिन्न है उस प्रकार उपादान कारण कार्यमे भिन्न आत्मा ही कभी मनुष्य हो जाता है, कभी पशु बन नहीं है किन्तु उपादान अपनी पूर्व पर्यायको त्याग जाता है, कभी देव तो कभी नारको हो जाता है कर ही उत्तर अवस्थाको प्राप्त होता है। इसी उत्तर तथा उन उन पयायोंके अनुकूल अनन्त दुःखोंका अवस्थाका नाम कार्य है । यह नियम सर्वत्र लागू पात्र होता है इमीसे आये उपदेश प्रवृज्या ग्रहण होता है-आत्मामें भी यह नियम लागूहाता है- के करनका है। आत्मा भी सर्वथा भिन्न कार्यको उत्पन्न नहीं करती। यहां पर कोई कहता है कि यदि पर्यायके साथ जैसे सब आस्तिक महाशयोंने आत्माकी मंसार द्रव्यका तादात्म्य सम्बन्ध है तो वह पर्याय विनष्ट और मुक्ति दो दशाएं मानी हैं। यहां पर यह प्रश्न क्यों हो जाती है । इसका यह अर्थ है कि तादात्म्य स्वाभाविक है कि यदि कारणसे काय सर्वथा भिन्न सम्बन्ध एक तो नित्य होता है और एक अनित्य है तो संसार और मुक्ति ये दोनों कार्य किम द्रव्यक होता है। पर्दार्थोंके साथ जो सम्बन्ध है वह अनित्य अस्तित्व में है, सिद्ध करना चाहिए। यदि पुद्गल है और गुणोंके साथ जो सम्बन्ध है वह निरन्तर द्रन्यके अस्तित्वमें है तो आत्माको भक्ति, प्रवृज्या, रहता है अतः नित्य है। इसीलिये जैनाचार्योंने गुणों सन्यास, यम-नियम, व्रत, तप आदिका उपदेश देना को सहभावी और पर्यायोंको क्रमवर्ती माना है । निरर्थक है क्योंकि आत्मा तो सर्वथा निर्लेप है यही कारण है कि जो गुण परमाणुमें हैं वे ही
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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