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________________ ३१४ अनेकान्त [वर्ष १० है उसका रूप लावण्य इतना चित्ताकषक था कि द्वारा सदशनको राजमहलमें पहुंचा देता है। सुदउसके बाहर निकलते ही यातजनोंका समूह उसे शनके राज महलमें पहुँच जानेपर भी अभया १ देखनेके लिये उत्कंठित होकर बाहर मकानोंका छनों अपने कायमें असफल रह जाती है-उसको मनोद्वारों तथा झरोखोंमें इकट्ठा हो जाता था, क्योंकि कामना पूरी नहीं हो पाती। इससे उसके चित्तमें वह कामदेवका कमनोय रूप जो था। साथमें वह असह्य बेदना होती है। और यह उसे अपने अपगुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञाके सम्यक्पालनमें अत्यन्त मानका बदला लेने को उतारूहो जाती है और अपहद था धमाचरण करने में तत्पर था। मब में नी कुटिलताका मायाजाल' फैलाकर अपना समिष्ट भाषी, मानव जीवनको महत्तासे परिचित था कोमल शरीर अपने हो नखोंसे रुधिर-प्लावित कर और था विषय-विकारोंसे विहीन । डालती है और चिल्लाने लगती है कि दौड़ो लोगो कथाभाग प्रन्थका कथा भाग बड़ा ही सुन्दर और आक... ग्रन्थमें निहित अभया और सुदशनके विचारोंकी र्षक है, वह इस प्रकार है: तुलना भी मनन योग्य है और उसका कुछ अंश इस अंग देशके चम्पापुर नगरमें, जहां धाड़ीवाहन । प्रकार है:राजा राज्य करता था-वैभव-सम्पन्न ऋषभदास सुइ दंसशु चिनइ उन्बरेमि, श्रेष्ठ का एक गोपालक था जो गंगामें गायोंका पार __ अभया चिाइ सुदरु रमेमि । करते समय पानीके वेगसे डूबकर मर गया था और सुहदसशु चिन: कम्मणासु, मरते समय पश्चनमस्कार मंत्रकी आराधनाके फल ___ अभया चितइ सुरयाहिलासु । स्वरूप उसी सेठके यहां पुत्र हुआ था, उसीका नाम सुहृद सगु चितइ णागलाहु, सुदशन रक्खा गया । सुदर्शनको उनके पिताने सब अभया चितइ हुउ अण्ण-डाहु । प्रकारसे सुशिक्षित एवं चतुर बना दिया और उस- . सुहृदंगु चितइ मोक्वमन्गु, का विशाह सागरदत्त सेठकी पुत्री मनोरमास कर दिया अभया चितइ भुजइ ण भोगु। अपने पिताकी मृत्युके बाद वह अपने कार्यका विधि सुहृदंमा चिसद खमि कम्मु, वत संचालन करने लगा। सुदर्शनक रूपकी चारों अभया चितइ महु किउ अहम्मु । और चर्चा थी उसके रूपवान शरीरको देखकर उस मुहृदंसणु चितह जगु अणिच्चु, नगरके राजा धाड़ी वाहन को रानो अभया उस पर __ अभया चितइ महु पत्तु मिच्चु । आसक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करनेकी अभि- घत्ता-सुर्दसण चिंतइ हियए अवदरेमि अडयण साइस अदमयकल्लाणहि सहिउ रे जीव अरुहु बाराहम ३१ यहां भेजती है, पण्डिता दासी रानीकी प्रतिज्ञा सन- २. वीयंदयार सूई मुहेहि, फाडिउ सरीरु णियकररुहेहि । कर रानीको पातिव्रत धर्मका अच्छा उपदेश करती घण यण सहति लोहियविलित्त, णं कणयकुभधुतिणणसित्त है, और सुदर्शनको चरित्र-निष्ठाकी ओर भी वच्छलएस हत्यहिं हणंति' । संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारमें निर उहिय हयास लहु इय भणन्ति । चल रहती है और पण्डिताको उक्त कार्य की पूतिके धसमुसलु परं गणरत्त चित्त, लिये खास तौरसे प्रेरित करती है । पडिता सुदर्शनके । महयाइहिं डिएण डंकहि पहुत्त । पास कईवार जाती है और निराश होकर लौट घता-महु लडङ्गइ वणिवरेज, एयई गंजियइं पलोयहो । पाती है पर एक बार वह दासी किसो कपट-कला जास समारइ ता मिलेवि' अहो भावहो णे चितइ तावहि
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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