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________________ अपभ्रंश भाषाके दो महाकाव्य और कविवर नयनन्दी ( लेखक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) 1101 हुआ भारतीय भाषाओं में संस्कृत और प्राकृतकी तरह अपभ्रंश भाषाका भी साहित्यसृजनमें महत्वपूर्ण स्थान रहा है । वह हिन्दीकी जननी है इसमें किमी भी विचारवानको विवाद नहीं हो सकता । इस भाषा में प्रचुर साहित्य रचा गया है और उसका अधिकांश भाग जैन कवियोंकी लेखनीसे प्रसूत है यद्यपि इस भाषा का कितनाही प्राचीन बहुमूल्य साहित्य नहीं मिलता, फिर भी आज इसका जो महत्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध है उसे देखते हुये यह निस्संकोचरूपसे कहा जा सकता है कि वर्तमान हिन्दी भाषा जो आज राष्ट्र भाषा बनने जा रही है उसके उद्गमका प्रधान श्र ेय अपभ्रंश भाषा और उसके सिक साहित्यिक जैन विद्वानोंका ही प्राप्त है। यह भाषा कितनी कोमल, ललित, मरस और माधुयं युक्त है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं, इसके रसिक विद्वान उसकी महत्तासं स्वय परिचित हैं । आज मैं इस लेख द्वारा अपभ्रंश भाषाके दो महा काव्यों का संक्षिप्त परिचय पाठकों के समक्ष रखनेका उपक्रम कर रहा हूं। ये दनों ही काव्य-प्रन्थ अपने आपमें परिपूर्ण हैं और एकहो कविकी उज्ज्वल प्रतिभास द्योतक है और अभीतक अप्रकाशित हैं। ये संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके विविध छन्दों उपमाओं और अलंकारों आदिकी दिव्य छटा से अलंकृत है । इनमें काव्योचित वे सभी गुण विद्यमान है जिन्हें काव्य शास्त्री अपने अपने ग्रन्थों 'चुन चुन कर रखनेका प्रयत्न करते हैं। में कविने अपने ग्रन्थों में अर्थ गाम्भीर्य युक्त कविता की प्रशंसा करते हुए उसकी महत्ता व्यक्त की है और छुद्र कवियोंकी स्खलित पदरचना में उनकी असमर्थता की ओर संकेत किया है। इतनाही नहीं बल्कि काव्यके आदर्शको बार बार व्यक्त करते हुये लिखा है कि रस और अलकारसे युक्त कविकी कवितामें जो रस मिलता है वह न तरुणिजनोंके विद्रुमसमान रक्त अधरमे, न आम्रफलमें, न ईखमें न अमृतमें, न चन्दन मे, और न चन्द्रमामें ही मिलता है। जैसा कि उसके निम्न पदसे प्रकट है: 'यो संजादं तरुणि अहरे विद्र मारक्तसोहे | णो साहारे भमियभमरे व पुढच्युडंडे । गोपोसे हले सिहिणे चन्दणे णेव चन्दे | साल का सुक भणिदे जं रसं होदि कव्वे ॥” यदि इस लोकप्रिय भाषाके इन अप्रकाशित समस्त ग्रन्थोंका आधुनिक ढंग से प्रकाशन हो जाय तो उससे न केवल हिन्दी भाषाके इतिहासकी सृष्टि होगी, किन्तु तत्कालीन विलुप्त इतिवृत्त के संकालन में भी बहुत कुछ सहयोग एवं सहायता मिल सकेगी । इन काव्य प्रन्थोंके नाम सुद सण चरिउ, (सुदर्शन चरित) और 'सयलविहि विहारणकव्व' (सकलविधि विधान काव्य ) है । इन दोनोंही प्रन्थों और उनके कतोदि विषयका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना ही इस लेख का एक मात्र लक्ष्य है । प्रथम प्रन्थ सुदर्शन चरितमें पंचनमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ स दश ेन के चरित्रका चित्रण किया गया है । चरित्र नायक वणिक श्रेष्ठ हैं उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा मेरुवत् निश्चल
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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