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________________ गारव-गाथा पांडे रूपचन्द और उनका साहित्य (ले० पं० परमानन्द जैन शास्त्री) - ) (पांडे रूपचन्दजी विक्रमकी १७ वीं शताब्दीके हिन्दीके प्रसिद्ध कवि बनारसीदासजीने अपने विद्वान थे, काव्य-व्याकरणादिके साथ जैन सिद्धा- 'अर्धकथानक' में लिखा है कि संवत् १६६२ में न्तके भी अच्छे पंडित थे और भट्टारकीय पंडित आगरामें पं० रूपचन्द्रजी गुनीका आगमन हुआ होनेक कारण 'पांडे' की उपाधिसे अलंकृत थे। और उन्होंने तिहुना माइके मन्दिरमे डेरा किया। आपको हिन्दीके सिवाय, संस्कृत भाषाके विविध उस समय आगरामें सब आध्यात्मियोंने मिलकर छन्दोंमे भी कविता करनेका अच्छा अभ्याम था। विचार किया कि पांडेजीसे आचार्य नेमिचन्द्र आपने 'समवसरण' नामक संस्कृत पूजापाठकी सिद्धान्तचक्रवर्तीके द्वारा मकलित गोम्मटसार प्रशस्तिमे अपना जो परिचय दिया है नामक सिद्धान्तग्रन्थका वाचन कराया जाय । उमसे मालूम होता है कि आपका जन्म-स्थान चुनाँचे पंडितजीने गोम्मटसार ग्रन्थका प्रवचन 'कुछ' नामके देशमें स्थित 'सलेमपुर' था। आप किया और मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा अग्रवाल वंशके भूपण गर्गगोत्री थे। आपके पिता- कर्मबन्धादिके स्वरूपका विशद विवेचन किया। महका नाम मामट और पिताका नाम भगवानदास माथ ही, क्रियाकाण्ड और निश्चयनय व्यवहारथा । भगवानदासकी दो पत्नियां थी, जिनमें नयकी यथार्थ कथनीका रहस्य भी समझाया । प्रथमसे ब्रह्मदाम नामके पुत्रका जन्म हुआ था। और यह भी बतलाया कि जो नयदृष्टिसे विहीन दमरी पत्नी 'चाची' से पांच पुत्र समुत्पन्न हुए थे- है उन्हें वस्तुतत्त्वकी उपलब्धि नहीं होती तथा हरिराज, भूपति, अभयराज, कीर्तिचन्द्र और श्रीब्रह्मदासेति समासवृत्तः । रूपचन्द्र । इनमे अन्तिम रूपचन्द्र ही प्रसिद्ध कवि द्वितीय 'चाचो' इति संज्ञिकाया, थे और जैन मद्धान्तके अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे । पन्यां भवा: पंचसुता: प्रसिद्धाः ॥२॥ वे ज्ञानप्राप्तके लिये बनारस गये थे और वहांस हगिरिव हरिराजो भूपतिर्भूमिवोच्यः (!) शब्द और अर्थरूपी सुधारसका पानकर दरियापुरमे भवदभयराज: कीर्ति चन्द्रः सुकीर्तिः । लौट कर आये थे। तदनुजकविरूपो रूपचन्द्रो वितन्द्रो, १ नाभयभुतिरुचिरे कुहनाम्नि देशे, विमलसुमतिचक्षुर्जेनसिद्धान्त-दक्षः ।।३।। शुद्ध सलेमपुरवाक्पहिरूपसिद्ध । स रूपचन्द्रोऽय समाव जत्पुरी, अग्रोस्कान्वय--विभूषण-गर्गगोत्र:, बनारभी बोधविधानलब्धये । श्रीमामटस्य तनयो भगवानदास: ॥१॥ ग्रास्वाद्य शब्दार्थ सुधारसं ततः, तत्पूर्वपल्या प्रभवः प्रतापी, संप्रातवांस्तद्दरियापरं पुरं ॥४॥
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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