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अनुकरणीय शास्त्रदान श्रीविद्यानन्द आचार्यकी प्राप्तपरीक्षा और उनको स्वोपल-संस्कृत-टीका हिन्दी भाषा-भाषियोंके लिए अभी मक दुर्लभ और दुर्गम बनी हुई थी। वीरसेवामन्दिरने हालमें इन दोनोंको ही हिन्दी अनुवादादिके साथ प्रकाशित करके उनकी प्राप्ति और उनसे ज्ञानार्जन करनेका माग सबके लिए सुलभ कर दिया है। इस प्रन्थमें प्राप्तोंकी परीक्षा-द्वारा ईश्वर-विषयका बड़ा ही सुन्दर सरस और सजीव विवेचन किया गया है और वह फैले हुए ईश्वर-विषयक अज्ञानको दूर करनेमें बड़ा ही समर्थ है। साथ हो दर्शनशास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको भी इसमें खूब खोला गया है। इससे यह प्रन्थ बहुत बड़े प्रचार. की आवश्यकता रखता है। सभी विद्यालयों-कालिजों. लायबोरियों और शास्त्र-भण्डारोंमें इसके पहुँचनेकी जहाँ जरूरत है वहाँ यह विद्या-व्यसनी उदार विचारके जैनेतर विद्धानों को भेंट भी किया जाना चाहिये, जिससे उन तक इम ग्रंथनकी सहज गति हो सके और वे इस महान शास्त्रसे यथेष्ट लाभ उठाने में समर्थ हो सकें। इसके लिये कुछ दानी महानुभावों को शीघ्र ही आगे आना चाहिये और दस दस बीस बीस प्रतियाँ पक साथ खरीदकर उन संस्थाओं तथा विद्धानोंको यह प्रन्थ भेंट करना चाहिये। अपनी इस विज्ञप्तिको पाकर कलकत्ताके सेठ सोहनलालजी फर्म मुन्ना लाल द्वारकादासने, और सेठ बैजनाथ जी सरावगी ( फर्म जोखीराम बैजनाथ ) ने ग्रन्थकी बीस२ प्रतियाँ खरीद कर दान करने की स्वीकृति दो। बादको सेठ सोहन लाल जो ने श्री.वी.आर.सी. जैन कलकत्ताको भी २० प्रतियां खरीदने की प्ररेणा की और उनके भी रुपये अपने रुपयोंके माथ भिजवा दिये । इस महान् शास्त्रदानकेलिए तीनों ही सज्जन बहुत धन्यवादके पात्र हैं और उनका यह उत्तम दान-कार्य दूसरोंके लिये अनुकरणोय है। मेठ बैजनाथजीने अपनी प्रतिया अनेक स्थानोंके जिन मन्दिरोंको भिजवाई हैं। बीस प्रतियाँ एक साथ लेने वालोंको यह ग्रन्थ प्रचार की दृष्टि से १६०) को जगह १००) में दिया जाता है और २० मे कम प्रतियाँ लेने वालोंको पौने मल्य में । जो सजन प्रतियाँ खरीद कर उन्हें वीर मेवामन्दिरकी माफतही इच्छित स्थानोंको भिजवाना चाहेंगे उन्हें प्रत्येक प्रतिके लिए बारह मानके हिसाबसे पोष्टेज खर्च भी साथमें भेजना होगा। आशा है दानी महानुभाव और उद्यापनादि में प्रवृत्त होने वाली महिलाए दोनों हो शीघ्र इस महान शास्त्र के दानकी ओर अपना लक्ष्य केन्द्रित करेंगे।
पुरातन-जैनवाक्य-सूची तय्यार पुरातन-जैन वाक्य-सूचा (प्राकृत पद्मानुक्तपणी , जो वर्षों से सादिकी झझटोंके कारण खटाईमें पड़ी हुई थी और जिसको देखने के लिए विद्वान लोग बहुत उत्कंठित हो रहे थे, वह अब छप कर तय्यार हो चुकी है। बाइंडिंगका काम समाप्त होते ही सबसे पहले यह उन ग्राहकोंको उमी १२)रु० मूल्यमें अपना पोस्टेज लगाकर भेजी जावेगी जिनका मूल्य पेशगी आचुका है। शेषको पोस्टेजके अलाबा १५)रु में दी जावेगी और उसमें भी उन ग्राहकोंको प्रधानता दी जावेगी जिनके नाम पहलेमे ग्राहक-श्रेणी में दर्ज हो हैं। चूँकि इस प्रन्थकी कुल ३०० प्रतियाँ ही छपी है अत: जिन्हें लेना हो शीघ्र ही अपना आडर भेजना चाहिये-विलम्ब करनेसे बादको यह चीज नहीं मिल सकेगी। ग्रन्थ ३६ पौंडके उत्तम कागज पर छपा हैं. बड़े साइजके ५२४ पृष्ठों को लिए हुए हैं मुख्तारश्री जुगलकिशोरजीकी गवषेणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्ताव नासे अलंकृत है, प्रस्तावनाका उपयोग बढ़ानेके लिए १० पेजके करीबकी नाम-सूची भो साथमें जगी हुई है। इसके अलावा अंग्रेजी में डाक्टरए० एन० उपाध्ये एम०ए० कोल्हापरकी प्रस्तावना (Introduction) और डा० कालीदास नाग एम० ए० कलकत्ता के प्राक्कथन (Foreword) से भी विभूषित है।
मैनेजर 'वीरसेवामन्दिरग्रन्थमाला ७/३३ दरियागंज, देहजी :