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किरण]
पतितपावन जैन धर्म
जी जयपुर जाकर वेदी लाये। मन्दिरमें विधिपूर्वक लगे कि यह इन्हीं का कर्तव्य है जो आज इस श्रादवेदीप्रतिष्टा हई और उमपर श्रीपाश्वप्रभकी प्रतिमा मी को इतना बोलने का साहस हो गया। विराजमान हुई।
मैंने कहा-भाई साहब ! इतने क्रोधको भावमैंने पमहाशयोंमे कहा देखो मन्दिर में श्यता नहीं। धोती के नीचे सब नंगे हैं. आपलोग जब शद तक आ मकत है और माली रात दिन रह- अपने कृत्यों पर विचार कीजिये और फिर स्थिर सकता है तब जिसने १०००) दिये और जिमके द्रव्य चित्तसे यह सोचिये कि आप लोगों की नियमहीन से यह वेदी प्रतिष्ठा हई उमीका दर्शन न करने दिये पश्चायतने ही आज जैन जातिको इस दशामे जावें यह न्याय विरुद्ध है। आशा है हमारी प्रार्थना ना दिया है। बेचारे जेनी लोग दर्शन तक के लिये पर आप लोग दया करेंगे।
लालायित रहते है। कल्पना करो किसोने दस्साके सब लोगों के परिणामों में न जाने कहांसे निर्मलता साथ सम्बन्ध कर लिया तो इसका क्या यह अर्थ आ गई कि सबने उमे श्री जिनेन्द्र देवके दशन करने हुआ कि वह जन-धमकी श्रद्धासे भी च्यत हो को आज्ञा प्रदान कर दी। इम आज्ञाको सुनकर वह गया श्रद्धा वह वस्तु है जो सहसा नहीं जाती शा. तो आनन्द ममुद्र में डूब गया। आनन्दसे दर्शन कर स्त्रों में इसके बड़े २ उपाख्यान है-बड़े बड़े पातकी पञ्चोंसे विनय-पूर्वक बोला-उत्तराधिकारी न होने भो श्रद्धाके बलसे ससारसे पार हो गये श्री कुन्द से मेरे पामको सम्पत्ति राज्यमे चली जावेगी अतः कुम्द भगवान ने लिखा हैमुझे जातिमें मिला लिया जावे ऐसा होनेसे मेरी दसण भट्टा भट्टा दसणभट्ठस्स पत्थि णिवाणं सम्पत्तिका कछ सदुपयाग हो जायगा।
सिझान्ति चरियभट्टा दंसाभट्टाण सिझति ॥ यह सनकर लोग आगबबूला हो गये और मुल. अर्थात जो दर्शन से भ्रष्ट है व भ्रष्ट है जो दर्शन मलाते हुए बोले-कहां तो मन्दिर नहीं आ सकते से भ्रष्ट है व निर्वावाके पात्र नहीं। चारिखसे जा थे अब जातिमे मिलनेका होसला करने लगे । अगु- भ्रष्ट है उनका निवाण (मोक्ष) हो सकता है परन्तु ली पकड़ कर पोंचा पकड़ना चाहते हो
जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे नवोणलाभसे वखित रहत है। वह हाथ जोड़ कर बोला-आखिर आपकी
प्रथमानुयोगमें ऐसी बहत मी कथायें आती है जाति का हूँ, आपके ही सदृश मेरे संस्कार है कार- जिनमे यह बात सिद्ध की गई है कि जो चारित्रसे ण पाकर पतित होगया, क्या जो वस्त्र मलिन हो किन पापी मयात तिने
गिरने पर भी सम्यग्दर्शनसे सहित हैं वे कालान्तर जाता है उसे भट्रोमे देकर उज्वल नहीं किया जाता मे चारित्रके पात्र हो सकते है जैसे माघनन्दि मनि यदि आप लोग पतितको पवित्र करनेका मागेरोक ने कुम्भकार की बालिकाके माथ विवाह करलिया लेवेंगे तो आपकी जाति कैसे सुरक्षित रह सकेगो ? तथा उसके महवासमें बहुत काल विताया -वर्तन मैं तो वृद्ध ह, मृत्यु के गालमे बैठा है, परन्तु यदि आदि का अवा लगाकर घोर हिमा भी श्राप लागों की यहा नीति रही तो कालान्तरमें श्राप दिन मुनि-सभा में किसी पदार्थ के विचारमें सन्देह की जाति का अवश्यम्भावी हास होगा जहां माय न हुआ तब आचार्यने कहा इमका यथार्थ उत्तर माघहो सिर्फ व्यय ही हो वहां भारी से भारी खजाने का नन्दी जो कि कुम्भकारकी बालिका साथ आमोद अस्तित्व नहीं रह सकता। आप लोग इस बात पर प्रमोदमे अपनी प्रायु विता रहा है, दे सकेगा। विचार कीजिये कंवल हठवादिता को छोड़िये। एक मनि वहां पहुँचा जहाँ कि माघनन्दी मुनि कम्भ
मैंने भी उसकी बात में बात मिलादी । पञ्च कारके वेशमें घर-निर्माण कर रहे थे और पहुंचते लोगों ने मेरे ऊपर बहुत प्रकोप प्रकट किया। कहने हो कहा कि मनिसंघ में जब इस विषयपर शङ्का