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अनेकान्त
[वर्ष १०
है-दोनोंमें स्वाभाविकतया ही मेल नहीं होसकता- मुच ही आप उन्हें आनन-फाननमें स्वर्गका अधि
और यह सब भी जब आप ही कहते हैं तो हम यह कारी ( जैसा अधिकतर धर्मवालोंका चरम श्रादर्श कैसे मानलें कि आत्मा अनादि कालसे इन जड है या समझा जाता है) बनादें या अपने कथनापद्गलोंद्वारा बंधा चला आता है या बधा रह नुमार एकदम मोक्ष ही क्यों न दिलवा दें पर फिर सकता है । यह कैसे संभव है, तर्क-द्वारा यदि कुछ वे हठ-धर्मीको अखतियार कर लेते है और आपका समझा सकें तो समझाइये, वर्ना आप अपने सारा कथन टांय-टांय फिस हो जाता है। सिद्धान्तोंकी पूजा कीजिए, मै तो अपनेकी इसलिए जैनधर्मको पूर्णरूपसे प्रस्थापित कर ही रहा हूं। मैं ऐसी हालतमें क्यों आपकी (establish) करनके लिये इन प्राथामिक या बातें मानने लगा । ऐसी ही भावना हर-एक प्रारंभिक ( elementary ) बातोंका तर्कपूर्ण
आदमीके दिलमें जैनधर्मको जाननेके बाद भी उत्तर देना अत्यन्त आवश्यक है । मेरे मनमें भी होती है या हो सकती है-फिर वह सोचता है कि ये प्रश्न आज न जाने कितने वर्पोमे उठ रहे हैं पर भाई यही कहावत ठीक है कि "स्वधर्मे निधनं श्रेयः उनका ठीक-ठीक समाधान अब तक नहीं हुआ था। परधर्मो भयावहः” सभी धर्म ऐसे ही या एक-सां अब एकाएक कुछ उत्तर मनम उदित हुए है जिन्हें ही हैं। कोई कहीं जाकर गुम या चुप हो जाता है को- यहां देदेना मैं अपना फर्ज ममझता हूँ। ताकि और ई कहीं। फिर जैसे चलता है वैसे चलने दो। अदला- जो लोग इससे लाभ ले सके लेलें । हम आत्माके बदली या परिवर्तनादि करनेसे क्या फायदा ? यह कार्यों तक तो अनुमानद्वारा ही जा सकते है या तो कोरा मानव स्वभावानुकूल मनोवैज्ञानिक असर जा पाते है, स्वय आत्माको प्रत्यक्ष देखने या सम(effect ) ऐसी बातोंका हर एकके ऊपर पड़ता झनेवाला तो जैसा हम कहते है वही है है। जहां कहीं भी शुबहा या सन्देहका मौका या या हो सकता है जिसे हम तीर्थकर, केबली सवज्ञ छिद्र मिला कि मनुष्य उस किसी भी नए रास्तेको एवं सिद्ध कहते है । दृष्टान्त एवं उदाहरण नहीं पसंद करेगा या नहीं करता है-भले ही उसमें द्वारा जहाँ तक हम समझ या समझा सकते है चारों तरफ रत्न या सुवणकी खाने ही क्यों न भरी उतना ही तो हमे आगे बढ़ने और बढ़ानेमे सहापड़ी हों। मनुष्य भरसक जहां पड़ा है वहीं पड़ा यक होता है या होसकता है। और इसी तरह तर्क, रहना चाहता है यदि उसे दूसरी अवस्थामे लेजाने- अनुमान, प्रमाण इत्यादिपर सारी मान्यताएं की इच्छा रखनेवाला उसकी सारी शंकाओं या आधारित है। प्रश्नोंका ठीक-ठीक संतोषजनक समाधान न कर आत्मा और पुद्गल अथवा चेतन और सके यही बात और भी विशेषरूपसे हमारे धर्मोके जड़ (Matter) पदार्थ इस संसारमे-लोकमे साथ भी है। जैनधर्ममे बड़ी-बड़ी खूबियाँ एवं सब जगह भरे पड़े हैं । जीवके आत्म-प्रदेशम अच्छाइयाँ-आखिरी चरमसीमा या दर्जेकी सभी (उतनी जगह Space में जितनी कि जीवन जगह कूट-कूटकर भरी पड़ी है पर यहां पहुँचकर घेर रखी है) पुद्गल भरे पड़े है। ऐसा माननेमे जो हम ठीक जवाब नहीं दे पाते है इससे उन कोई दिक्कत किसीको नहीं होना चाहिए । यह तो लोगोंके लिए जिनके दिलमे जन्मजात श्रद्धा नहीं- एक तर्कपूर्ण--बुद्धिगम्य एवं वैज्ञानिक तथ्यसे भी हमारा और सब कुछ कहना सनना बेकार-बेमत- खंडित नहीं होता । आत्मा चेतन तथा पुद्गल लष-अप्रभावकारी हो जाता है। फिर वे आगे जड है। यह साबित करना यहां मेरा विषय नहीं ध्यान नहीं देते। भले ही आप सही हों और सच- है। इसपर तो बहत कुछ कहा और लिखा जा