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ग्वालियरके किले का इतिहास और जैन पुरातत्व
(ले० परमानन्द जैन, शास्त्री)
किलेका इतिहास
वादामन् नामके राजाने-जिसका राज्यशासन
१००७ से १८३७ तक रहा है, वह जैनधमका श्रद्धालु जन साहित्यमें वर्तमान ग्वालियरका था उसने संवत् १०३४ में एक जैनमृत्तिकी प्रतिष्ठा "उल्लेख गोपायलु, गोपाद्रि, गोपगिरि,
भी करवाई थी। उस मतिकी पीठपर जो लेख' गोपाचलगोपायल और गोयलगढ़ आदि नामोंसे अंकित योगी
___ अंकित है उसमे उसकी जैनधर्म में आस्था होने किया गया है। ग्वालियरकी इस प्रसिद्धिका कारण
का प्रमाण स्पष्ट है। इस वंशके अन्य राजाओंने जहां उसका पुरातन दुग (किला) है वहां भारतीय
जैन धर्मके संरक्षण प्रचार एवं प्रसार करनेमे क्या (हिन्दु, बौद्ध और जैनियोंके ) पुरातत्त्वकी प्राचीन कुछ सहयोग दिया यह बात अवश्य विचारणीय है एवं विपल सामग्रीकी उपलब्धि भी है। भारतीय
और अन्वेषणीय है, कन्नौजके प्रतिहारवंशी राजा इतिहासमे ग्वालियरका स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण
से ग्वालियरको ज.तकर उसपर अपना अधिकार है, वहाँपर प्राचीन अवशेषोंकी कमी नहीं है, उसके
कर लिया था। इस वंशके मंगलराज, कीर्तिराज, प्रसिद्ध सबों और किलोंमें इतिहासकी महत्वपूर्ण
भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यषाल, महीपाल, मामग्री उपलब्ध होती है । ग्वालियरका यह किला
भुवनपाल और मधुसूदनादि अन्य राजाओंने ग्वापहाड़की एक चट्टानपर स्थित है। यह पहाड़ डेढ़
लियरपर लगभग दो-सौ वर्षतक अपना शासन मील लम्बा और ३०० गज चौड़ा है। इसके ऊपर
किया है किन्तु बादमें पुनः प्रतिहारवशकी द्वितीय बलुआ पत्थरकी चट्टानें है उनकी नुकीली चोटियाँ
शाखाके राजाओंका उसपर अधिकार हो गया था; निकली हुई है जिनसे किलेकी प्राकृतिक दीवार बन
परन्तु वि० संवत् १२४६ में दिल्लीके शासक अल्तगई है। कहा जाता है कि इसे सूरजसेन नामके
मसने ग्वालियर पर घेरा डालकर दर्गका विनाश राजाने बनवाया था, वहां 'ग्वालिय' नामका एक
किया, उम समय राजपूतोंकी शक्ति कुछ क्षीण हो माधु रहता था, जिसने राजा सूरजमेनके कुष्ठ रोगको
चुकी थी, घोर संग्राम हुआ और राजपूतोंने अपने दर किया था। अतः उमको स्मृतिमें ही ग्वालियर
शौयका पूरा परिचय भी दिया; परन्त मुट्ठीभर राजनाम प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है । पर इममे कोई मन्दह
पूत उस विशाल सेनासे कब तक लोहा लेते, श्रानहीं कि ग्वालियरके इस किलेका अस्तित्व विक्रम
खिर राजपूतोंने अपनी प्रानकी रक्षाके हित युद्ध में की छठी शताब्दीमें था, क्योंकि ग्वालियर की पहाडीपर स्थित 'मात्रिचेता' द्वारा निर्मापित सूर्यमन्दिर
मरजाना ही श्रेष्ठ समझा, और राजपूतनियोंने 'जौहर' के शिलालेखमें उक्त दुगका उल्लख पाया जाता है।
द्वारा अपने सतीत्वका परिचय दिया-वे अग्नि
की विशाल ज्वालामें जलकर भस्म हो गई-और दमरे, किले में स्थित चतुभुजमन्दिरके वि० संवत
राजपूत अपनी वीरताका परिचय देते हुए वीरगति६३२-३३ के दो शिलावाक्यों में भी उक्त दुर्गका उल्लेख
को प्राप्त हुए और किलेपर अल्तममका अधिकार पाया जाता है । हाँ, शिलालेखोंसे इस बातका पता जरूर चलता है कि उत्तरभारतके प्रतिहार राजा
हो गया। मिहिरभोजने जीतकर इसे अपने राज्य कनौज में
संवत् १०३४ श्रीवनदाममहाराजाधिराज वा. शामिल कर लिया था और उसे विक्रमकी १५वीं साख बदि पाचमि । । देखो, जनरल एशियाटिकमोमाशताब्दीके प्रारंभमें कन्छपघट या कछवाहा शके इंटी अाफवगाल पृ० ४१०-११॥