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________________ २७८ अनेकान्त [वर्षे १० था कि 'अष्टसहस्रीके अन्तमें विद्यानन्दने वीरसेन जैन अजैन विद्वानोंके खंडन-मंडन तथा उल्लेख स्वामीकी प्रशंसा की है और उन्हें तार्किक-प्रवादि अथवा उल्लेखाभावके आधारपर आपने विद्यानन्द मदवारण कहा है ।' यह उल्लेख तो मेरे पास नोट की पूर्वावधि सुरेश्वर मिश्रका समय (७०८.८२०) किया हुआ है किन्तु दुर्भाग्यसे उसका सन्दभ नष्ट और उत्तरावधि वाचस्पति मिश्रका समय (८४१ ई०) होगया और यह स्मरण नहीं पाता कि कब किस निश्चित करते हुए उनका समय ७७५-८४० निर्णय विद्वानने किस लेख या प्रसंगमें यह कथन किया किया है। इस प्रकार उन्होंने विद्यानन्दकी पूर्वाव. था, हाँ अष्टसहस्रीके' अन्तमे प्रशस्तिरूपसे धिको तो अपने पूर्व निति समयसे ६० वष पीछे निम्नोक्त तीन पद्य अवश्य उपलब्ध होते हैं लौटा लिया किन्तु उसके अप्रत्यक्ष अधारपर जो श्रीमदकलङ्कशशधरकुल विद्यानन्दसंभवा भूयात् । वीरसेनकी मृत्य तिथिको एकदम बढ़ाकर ८४० के गरुमीमांसालंकृतिरष्टसहस्री सतामृद्ध्यै ॥३॥ लगभग कर दिया था, उसे वहीं रहने दिया। वीरसेनाख्यमोसगे चारुगणानयरत्नसिधुगिरिसततम् अपने मतकी पुष्टिमें कोठियाजीने श्रष्टसहस्रीके सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपचनगिरि गहरयितु ॥२॥ अन्तमें दी हुई उपरोक्त प्रशस्तिके प्रथम और तीसरे कष्टसहस्त्री सिद्धा साऽष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । पद्यको भी उद्धृत किया है । किन्तु वीरसेनके शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था (नर्वा) ॥३॥ उल्लेखवाले उक्त दूसरे पद्यको उद्धृत नहीं किया। संभव है इस प्रशस्तिके द्वितीय मध्यम-पद्यके उसके सम्बन्धमें आपने लिखा है कि "इन दो पद्यों आधारपर ही वैसा कथन किया गया हो। इस पद्यमें के मध्यमें जो कन्नड़ी पद्य मुद्रित अष्टमहस्रीमें पाया आचार्य विद्यानन्दने स्वामी वीरसेनकी भाग जाता है वह अनावश्यक और असंगत प्रतीत होता प्रशंसा ही नहीं की है वरन उनके स्वर्गस्थ हो जाने- है और इस लिये वह अष्टसहस्रीकारका नहीं का भी स्पष्ट उल्लेख किया है। मालूम होता।" अपने हाल में ही प्रकाशित लेख 'श्रा० विद्या- कन्नड़ी भाषाका विशेष ज्ञान तो मुझे नहीं है नन्दके समयपर नवीन प्रकाशमे'२ कोठियाजीने वि- किन्तु कन्नड़ी अभिलेखोंके अवलोकनसे जो उसका द्यानन्दके समयसम्बंधी अपने पूर्वोक्त मतको उलट आभास है उससे मेरी ममममें तो यह नहीं पाया दिया है और विद्यानन्दद्वारा वाचस्पति मिश्रके कि इस पद्यमें कौनमा विशिष्ठ कन्नड़ीपन है, शायद उल्लेखसम्बंधी अपनी भूलको स्वीकार करते हुए संस्कृत--कन्नड़ी उभयभाषा विशेषज्ञ इस प्रश्नपर अन्य विद्वानोंद्वारा विद्यानन्दके अनुमानित प्रकाश डाल सकें । मुझे तो इसके आगे पीछेके दोनों समय' को ही प्राय: मान्य कर लिया है। पूर्वापर संस्कृत पद्यों तथा विद्यानन्दके ग्रन्थोंकी सामान्य । अष्टसहस्री निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, ११ । भाषामें और इस पद्यकी भाषा और विन्यासमें कोई ऊपरी भेद दिखाई नहीं पड़ता वैसे विद्यानन्द पृ०२६५ । - २ अनेकान्त १०,३, पृ०१७। स्वयं कोटकके निवासी तो थे ही और उसी देशके गंगवाडि राज्यमे रह कर ही उन्होंने अपने प्रन्थोंकी ३ सी० एम० एफ० (दी क्रानोलाजी श्राफ इंडिया)-१० ई० अकलंकके पूर्व अनुमानित समय श्राधारपर प्रो० पाठक, व सतीशचन्द्र विद्याभूषण७५०ई०, ७८८ ई. के आधारपर; उसी आधारपर विद्याभूषण वा० कामताप्रसाद, पं० महेन्द्रकुमार-मादि-सत्यवाक्यके मख्तारसाहब आदि विद्वान वीं शताब्दीका पोर्द्ध प्राधारपर-१६, प्रो. हीरालाल-उसी आधारपर ८ वी अष्टसहस्रोमें कुमारिल (७००-७६०) के उल्लेखोंक शताब्दीका अन्त अथवा नवींका प्रारंभ, इत्यादि ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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