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किरण ७-८1 आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरमेन
२७६ रचना की थी। यह पद्य केवल मुद्रित अष्टसहस्रीमें ऐसे कथनके प्रक्षिप्त होनेकी कोई संभावना भी नहीं ही पाया जाता है यह बात भी तभी कही जा सकती है, क्योंकि इसमें जिस घटनाका उल्लेख है उसके है जब अष्टसहस्रीकी समस्त उपलब्ध प्रतियोंकी तुरन्त उपरान्त तो उसके प्रक्षिप्त होनेकी संभावना जाँचपड़ताल कर यह निर्णय कर लिया जाय कि प्रा. शायद हो भी सकती है सो भी स्वयं ग्रन्थकारद्वारा चीनतम एवं प्रामाणिक प्रतियोंमेंसे किन किनमें यह ही, अन्यथा ऐसी बातको लेकर किसी असम्बपद्य है और किनमे नहीं। रही उसके अनावश्यक धित आचायके असंबन्धित ग्रन्थम किस
और अमंगत होने की बात सो प्रशस्तियों में कोई व्यक्ति द्वारा पीछेस घटा बढ़ो करनेका शायद निश्चित क्रमिक विषयविवचन तो होता नहीं।
एक भी दृष्टान्त नहीं मिलेगा । धवला-जयपहले पद्यमे वे अपना, अपने ग्रन्थका तथा अपने
धवलादिमें जिनऐनादि द्वारा ऐसा किया आदर्श अकलंकदेवका गुरुरूपमे' नामोल्लेख
जाता तो शायद अमंगत न भो होता। और फिर करत है, तोसरे पद्यमें उक्त ग्रन्थको रचनामे आचार्य
यदि वह घटना उक्त ग्रन्थको समाप्तिके लगभग कुमारसेनकी साहाय्यके लिये उनका आभार प्रदशित
३० वर्ष बाद की हो, जैसा कि कोठियाजी का करते है, और दसरे पद्यमें एक ऐसी ताजा घटनाकी
मत है, तो इस असंगत अनावश्यक अन्यभाषामें
निबद्ध क्षेपकको इस प्रकार एक असंबन्धित ग्रन्थमे सूचना देते है जिसने उनके हृदयको अत्यधिक
प्रविष्ट करनेका कष्ट भला कोई क्यों करेगा ? अतः प्रभावित किया था और जो तत्कालीन जैन इतिहास
इम पक्षक अष्टमहस्रीकी प्रशस्तिका मौलिक अङ्ग मे अधिक महत्वपूर्ण थी। उसी समय अथवा
तथा स्वय विद्यानन्दकी कृति होनेमें कोई सन्देह कुछ ही पूर्व समीपस्थ राष्ट कूट राज्य के निवासी
नहीं है, और इससे स्पष्ट हो जाता है कि अष्टसहमहान धवलादिक ग्रन्यांक प्रसिद्ध रचयिता, साथ मीको समानिस कुछ ही पूर्व स्वामी वीरसेन स्वगस्थ ही विद्यानन्दकी स्वयंको प्रवृत्तिके अनुकूल उद्भट हा थे। वाग्मी और वादिवृन्दारक भी, स्वामी वीरसन जैस
इमी पद्यकी दमरो पंक्तिका 'मार' शब्द और प्रथम वयोवृद्ध महान आचार्यकै स्वर्गस्थ होनेकी सूचना पटाकी प्रथम पंक्तिकाशशधर'शब्द भी ध्यान देने मिलती है, तब उसका उल्लेग्द न किया जाना अमं- योग्य है जिनके सम्बन्धमे मैं आगे प्रकाश डालूगा। गत हाता या किया जाना ? ग्रन्थ समाप्त हो ही दमक पर्व कोठियाजीकी अन्य कुछ शंकास्पद युक्तियों चुका था, उसका विषय भी ऐसा नहीं था कि कही का भी विवेचन करलेना उचित होगा। अन्यत्र उसमे ऐसी सूचना खप सकती, अतः एक (१) कोठियाजीन विद्यानन्दका समय ७७५परम साधीवत्मल महान आचायेका एक अन्य ईनित किया है, किन्तु इससे यह स्पष्ट और भी अधिक महान आचायक निकट निधनका नही होता कि यह उनका ग्रन्थरचनाकाल है या पूण अपने ग्रन्थकी उसी समय लिखी जानेवाली प्रशस्ति मनिजीवन है अथवाजन्मसे मृत्यु पर्यंत पूर्ण जीवन है में उल्लेख कर देना कम-स-कम उसके लिये तो और कमारसनका समय ७५० अनुमन करत हुए अनावश्यक हाना नहीं चाहिय था । अत्तु, जब इस उसे विद्यानन्दकी पूर्वावधि ठहरात हे दूसरी आर पद्यकं अष्टसहस्रोकारका होनमे बाधक चारों हेतु सुरेश्वर मिश्र ७८८ ८२०) को, साथ ही ७७६में उन्हें
हो निस्सार सिद्ध हो जाते है तो उसके उन्हींकी कुमार अवस्थाको भी प्राप्त हुया नहीं बताते और • कृति होनेमे भी कोई आपत्ति नहीं रहनी चाहिये। ७.३मे उनका बालक होना प्रतिपादन करते हैं। और ऐसे हो उल्लेखोंक श्राधारपर विद्वान उन्हें
. . चकि श्लोकवार्तिककी रचना ८१० में निश्चित
चकि. अकलंकका साक्षात शिष्य समझने लगे।
करत हैं इससे एसा प्रतीत होता है कि आपके मता