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________________ किरण ७८ ] भी है, जैसा कि सर्वथा संभव था, कि वीरसेन उस समय जीवित थे अथवा यह कि उनकी मृत्यु निकट पूर्व में ही हुई है ? जहाँ तक उक्त ३५ वें पद्यका प्रश्न है, यदि उसके 'गुरु' शब्द से अभिप्राय स्वामी वीरसेनका ही और 'पुण्यशासन' पदसे केवल उक्त प्रशस्तिका डी मान लिया जाय तो भी क्या उससे यह आशय और भी अधिक स्पष्ट एवं सद्भूत रूपमे ध्वनित नहीं होता कि जिस समय वीरसेन स्वामीका अन्त समय निकट था उन्होंने अपने भक्त, प्रतिभाशाली, बालशिष्य जिनसेनको अपने समीप बुलाकर कहा होगा " वत्स, हमारा अन्त समय अब निकट है, जीवनकी आशा शेष नहीं है। हमारे जीवनभरको दीर्घ साधनाका परिणाम ये धवल जयधवल ग्रन्थराज । धवलको हो हम पूर्ण कर चुके किन्तु जयधवलका लगभग एक तिहाई भाग ही रच पाये हैं। हमारे इस अधूरे कार्यको पूर्ण करनेका भार तुभपर है । तुम्हीं इस कार्यका निर्वाह करनेके उपयुक्त प्रतीत होते हो, किन्तु अभी उसके योग्य नहीं हो । हमारे द्वारा रचित धवला तथा जयधवलांशका और यहाँ संगृहीत तत्सम्बन्धित विपुल साहित्यका गंभीर अध्ययन मनन कर लेनेके पश्चात जब इस कायके लिये आवश्यक उपयुक्त प्रौढ योग्यता अपने में अनुभव करो तब इस कार्य को हाथ में लेना और इसको समाप्तिपर उसी प्रकार अपनी प्रशस्ति भी दे देना जैसे कि हमने धवलाके अन्त में दी है। हमारा आशीर्वाद है कि तुम इस काय में सफल होगे । " अस्तु गुरुकी मृत्युके लगभग ५० वर्ष पश्चात प्रायः है तो यह जरूरी नहीं कि वह कालक्रमानुसार ही करे । स्वयं हरिवंशकारने ही इस नियमका स्वयं निर्वाह नहीं किया, आदिपुराणकारने भी अकलंक, ओर श्रीपाल के पश्चात उनसे बहुत पूर्ववर्ती पात्रकेसरिका स्मरण किया । शिलालेखादिकों में भी अन्यन्त्र ऐसा बहुधा हुआ है (देखिये मुख्तार साहबका लेख अनेकान्त १, २, पृ० ६७ । श्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन २७७ गुरुकी ही आयुको प्राप्त होकर जिनसेन स्वामी जयधवलाको पूर्ण कर गुरु ऋणसे उऋण हो रहे थे तो वीरसेनस्वामीके उसी वाटनगरस्थ' चन्द्रप्रभ जिनालय के प्रन्थोंसे भरे कक्ष में संभवतया गुरुके ही आसनपर बैठे हुए उन्होंने स्वर्गवासी गुरुकी उम अन्तिम प्रज्ञाका पालन कर अपने आपको अहोभाग्य माना हो । होता है कि वे वीरसेन और जिनसेनको विद्यानन्द कोठियाजीके उपरोक्त लेखोंसे तो ऐसा प्रतीत क्योंकि यदि वे आचार्य आगे पीछे होते तो उनके के प्रायः पूर्ण समकालीन बनाये रखना चाहते हैं; प्रन्थोंमें एक दूसरेका उल्लेख होना कोठियाजी के मतानुसार अनिवार्य था, कोई वजह नहीं थी कि ऐसा न होता । किन्तु परस्पर उल्लेखकी बात तो समकालीन रहते भी संभव है जैसा कि स्वयं कोठियाजीने अपने हालके लेख में स्वयं स्वीकार किया है, परन्तु वहाँ अपने उपरोक्त तर्कके बिल्कुल विपसिद्ध कर दिया है। मालूम होता है नैयायिक विद्वारीत तर्क द्वारा स्वयं ही उल्लेखाभावको संभव भी नोंका तर्क दुधारी तलवार है, जिसका बार दोनों ओर होता है । किन्तु क्या यह सच है कि ऐसा कोई उल्लेख ही नहीं हुआ ? विद्यानन्द और जिनसेनने अवश्य ही एक दूसरेका कोई उल्लेख नहीं किया । वीरसेन ने भो विद्यानन्दका कोई उल्लेख नहीं किया, किन्तु क्य । विद्यानन्दने वीरसेनका भी कोई उल्लेख नहीं किया ? किसी प्रतिष्ठित विद्वान् ने यह कथन किया १ जैना एंटीक्वेरी भाग १५ जिल्द २ पृ० ४६ | इस लेखमें हमने धवल जयधवल के रचनास्थलको सुनिश्चित रूपसे चीन्हा है। उक्त स्थानके विषय में विद्वान अभी तक संशयित एवं अनिश्चित थे । इस लेखमें प्रतिपादित तथ्यों से भी बीरसेन स्वामीके समय सम्बन्धी हमारे मतकी भती प्रकार पुष्टि होती है । २अनेकान्त १०, ३, ४० ६१ ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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