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________________ अनेकान्त [ वर्ष १० तब क्या वे उस समय यदि ३०-३५ वर्षके भी रहे हों तो अब सन् ८३७-३८ में लगभग ६० वर्ष के पर्याप्त वृद्वनहीं होगये होंगे ? और क्या जिन सेन की रचनाओं में किसी स्थलपर भी ऐसा स्पष्ट असंदिग्धमं केतमात्रका गुरुवंश ) की गुरुपरम्परायें निर्दिष्ट हरिवशकारके परदादा गुरु भीमसेनके शिष्य तथा शान्तिषेणके गरु जिनसेन प्रतीत होते हैं, जिन्होंने कि वर्द्धमानपुराण और जिनेन्द्रगुण संस्तुति आदि ग्रन्थ रखे होंगे। उल्लेखमें वर्णित विशेषणों का श्रादिपुराणकार के साथ कोई भी एकत्व नहीं है । उस समय यदि वे दीक्षित भी हो गये हों तो अधिक से अधिक १८-२० वर्षके युवक मात्र ही हो सकते हैं। इस हिसाब से भी अमोघवर्षके शासनकाल के मध्य में, ८५० के लगभग उनको मृत्यु होनेसे उनकी आयु ६० वर्ष के लगभग हो जाती है। संभावना तो उनकी ८५० के उपरान्त भी जीवित रहने की है और उस समय भी उनके प्रतिवृद्ध हो जानेका कस्कालीन श्राधारोंमें कोई संकेत नहीं मिलता। दूसरे, जो व्यक्ति ७८३ के पूर्व डी एक यशस्वी एवं प्रसिद्ध ग्रन्थकार तथा प्रौढ प्राचार्यों द्वारा सम्मान प्राप्त हो वह अपने जीवन के श्रेष्ठतम भाग ४०-४५ वर्ष व्यर्थ विना किसी साहित्य सृजनके ही गंवा दे, यह समझ में नहीं आता। इसके अतिरिक्त, सुदूर काठियावाड़के वर्द्धमानपुर में अपने प्रन्थको ७८३ में समाप्त करनेवाले हरिवंशकार उक्त ग्रन्थके प्रारम्भ में ही, जो उसके भी ७-८ वर्ष पूर्व हुआ होगा, दूसरे देश एवं राज्यके एक नवरवक ( इसमें भी शका है) साधुका तो स्वामी विशेषण के साथ ससम्मान उल्लेख करें और उसी प्रदेशवर्ती प्राचार्य विद्यानन्द, महाकवि स्वयम्भू आदि विद्वानों एवं पुराण कारोंका तथा तत्कालीन अभिलेखोंमें उल्लिखित अनेक महान आचार्योंका जिक्र भी न करें यह असंगत-सा लगता है | बीरसेनके उल्लेखका काव्या तो स्पष्ट है, वे एक महान ग्रन्थकार प्रतिष्ठित प्रौढ प्राचार्य अनेक विद्वानोंके माननीय गरुसम थे। उनके साथ या पीछे जिनसेन का नामोल्लेख मो इस विषय में कोई सहायता नहीं देता । जब एक विद्वान अन्य विशिष्ट विद्वानोंका स्मरया करत २७६ किया है, जो सर्वथा संगत है कि क्योंकि जिनसेन को प्रन्थका शेष भाग लिखने के लिये गुरुद्वारा रचित पूर्व साहित्यका अध्ययन करना पड़ा था। इससे स्पष्ट है कि गुरुकी मृत्यु बहुत पहिले ही होगई थी । परन्तु कोठियाजी इस प्रश्नक। समाधान इस प्रकार करते हैं कि “क्योंकि गुरुकी मौजूदगी में भी गुरु जैसी पद्धति को अपनाने के लिये जिनसेनने पूर्व भागका देखा होगा तथा वीरसन स्वामीने वृद्धत्वादिकं कारण जयधवलाके अगले कार्यको स्वयं न कर जिनसेनके सुपुर्द कर दिया होगा ।" अतः उन्होंने वैसा कथन किया है । अब प्रश्न यह है जब जिनसेन स्वयं यह स्पष्ट कथन कर रहे है कि उन्होंने गुरुद्वारा रचित साहित्यकाअ ध्यन करनेके पश्चात ही उनके द्वारा अधूर छोड़े हुए कार्यको पूर्ण किया। इतना ही नहीं, उन्होंने एक अन्य प्रौढ विद्वान श्रीपाल द्वारा जो सम्भवतया वीरसेनके साहित्य और शैलीस जिनसेन की भी अपेक्षा अधिक परिचित थे, सम्पादित करवाने का भी कष्ट उठाया। इस शेष भागकी रचना में भी उन्हें कुछ कम समय नहीं लगा, उसके लिये कम-से-कम १०-१५ वर्षका समय अनुमान किया जाता है। तो क्या स्वामी वीरसेन जैसे साहित्यिक महारथी निप्रन्थ तपस्वीन अपने जीवन के अंतिम १५-२० वर्ष शिष्य के ऊपर अपना भार डालकर स्वयं वृथा ही गँवा दिये ! मृत्युके लगभग २० वर्ष पूर्वसे ही वे इतन वृद्ध और अशक्त होगये थे ! और जैसा कि हरिवंश के उल्लेख के आधारपर प्राय: समस्त विद्वान् अभा तक यह मानत है कि स्वयं जिनसेन सन ७८३ में एक यशस्वी प्रन्थकर्ता एवं विद्वान थे ' १ इस विषय में मेरा मन तो कई वर्षसे यह रहा है कि हरिवंश में उल्लिखित जिमसेन आदिपुराणकार एवं बीरसेनशिष्य जिनसेन नहीं हो सकते। नामैक्य से ही विद्वान् इस भ्रम में पड़ गये हैं। हरिवंश में स्मृत जिनसेन स्वामी हो उसी ग्रन्थ में दी हुई पुबाट संघ ( अन्धकार
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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