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अनन्ति
ऐसा करक हा पा
सकता।
पण या खला विद्वेष या लड़ाईका रूप नहीं लेने देना हो जायंगी या हो जाती है। हमारी भारतीय संस्कृत चाहिये, न उससे कटुता ही किसी तरहकी होनी ति या थक संस्कृतियों कितनी पुरानी हैं यह हमारे चाहिये । वस्तुका ठीक-ठीक असली स्वरूप जाननेके आधुनिक विशेषज्ञोंद्वारा अभी तक कुंछ निश्चित लिये यह खंडन-मंडन 'विशंद और निष्पक्षरूपमे नहीं हुआ है। पुराने खंडहर भग्नावशेष अभी चारों होना जरूरी है। ज्ञान किसी भी वस्तु या विपयका "तरफ भरे पड़े है जिनकी खाई बाकी है। अङ्ग
'रेजोंने जो कुछ थोड़ी बहूत खुदाई इधर उधर करके मान महा भगवान महावीर जैनधर्मके चौबीसवें और ; .... .. हमें जो कुछ बतलाया अभी तक हम उमीपर निर्भर
. हैं और सब किए बैठे है। पर श्रव हमारी स्वतंत्र आखरी प्रचारक, परिष्कारक या प्रवर्तक हुए हमें ए.
सरकारको चुप बैठना ठीक नहीं। अपनी संस्कृतिकी यह जानबूझकर हमारे, विदेशी सत्ताधिकारियोंद्वारा . यह बतलाया जाता रहा कि 'महावीर जैनधर्म मचा- प्राचीनता सावित करना परम आवश्यक है। मथगकी पक है या हुए। और यह केवल इसलिए कि भारत खुदाइस हमन एक-दृसरको नया कह कहकर देशकी
- 'बड़ी मारी होनि' की । अपनी "मारी संस्कृतियोंकी अपनी पुरानी और प्राचीनतम संस्कृतियोंको भूल प.
"प्राचीनताकी ही बड़-मंडल कर दिया । यह ठीक जाय । यदि संभव होता और ऐतिहासिक प्रमाण । नहीं रहते तो इन लोगोंने भगवान महावीर या बुद्ध- नहा को ईसासे पांच सौ वर्ष पूर्व होने के बजाय पाँचसो मंगवान ऋषभदेव जैनधर्मकं सबसे प्रथम 'वष 'बाद होना ही दिग्खलाते । यदि तिव्बत और 'तीधर या प्रचारक हुए। पहले जैनधर्म ही मना
चीनकी पुस्तके नहीं रहती तो महावीर और बुद्धकी तन मत्यपर निश्चित या नियेन होनेमे "सनातन 'सत्ता या होना ही शंकाजनक 'बेतलाई जाती या धर्म" कहा जाता था। पर इधा करीव एक हजार अधिक-से-अधिक गड़रियोंके सरदारके रूपमें ही रहते 'वाँसे जब मन इस शब्दको अपना लिया और या कुछ ऐसा ही होता । परन्तु वहाँ ये मजबूर थे जैनधर्मको “जैन” नामकरण दे दिया तबस यह
और कम-से कम इन्हें इन भारतीय धर्मोको पश्चि- 'बाय "मनातन धर्म" के "जैनधम" होगया । कुछ "म.य धर्मो एवं संस्कृतियोंसे पहलेका स्वीकार करना लोगोंन इस मनातन जैनधर्म कहकर प्रचारित करन'ही पड़ा। फिर भी इन्होंने लगातार यही चेष्टा की है की चेष्टा की पर वे सफल न हो सके । भगवान ऋषहमारे दिमागोमे भरन्की कि रोम, ग्रीस या मिश्र "भदेवक बाद समय 'समयपर सईम तीथकर और और बैवीलोनियां वगैरहकी संस्कृतियां भर्भारतीय · हए जिन्होंन उसी एक नियत या निश्चित सत्यका संस्कृतियोंसे पुरानी थीं या हैं या रही हैं। और इस प्रचार किया जिन्हें जैन तत्त्व या जैनधमके नार्मस बातकी शिक्षा या प्रचार इस तरीकोसे Incisscent आज हम जानते हैं । 'आखिरी चौवीस तीथङ्कर लगातार की गई है कि हमारे विशेषज्ञोंने भी वैसा · भगवान महावीर हुए जिनका पावन जन्म आज़म ही मानना ठीक समझा जाने लगा या समझा गया। पच्चीममौ वर्ष पहले वैशाली के लिच्छवी वशके यदि केवल जैनधर्मको ही लिया जाय और उसकी , प्रजातत्रके राजवंशमें हुआ । उन्होंने विवाह नहीं 'प्राचीनताका ठीक unbiased 'अनुमंधान किया किया | बाल-ब्रह्मचारी रहे । वयस्क होनेपर उन्होंने
जाय और धार्मिक विद्वेष-भावना या हम घड़े तो संसारके दुःखोंको देखकर उसे दूर करनेका उपाय ..हम बड़ेकी भावना छोड़कर देखा जाय तो इससे जाननेके लिये राज्य छोड़कर कठिन तपस्या प्रारंभ भारतका गौरव बढ़ेगा ही । और भारतकी की। तपश्चर्या के पश्चात् जिम सत्यपर वे पहुँचे संस्कृतिकी प्राचीनतमता अपने आप मावित वह वही सनातन वैज्ञानिक मत्य था जिसे हम