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किरण ७-८] पंडित सदासुखदासजी
३०१ सेवा-कार्य
तामै जिन चैत्याल लसैं, अप्रवाल जैनी बहु वसैं ५३ यों तो पं० सदासखदासजीका मारा ही समय बहुझाता तिनमें जुरहाय, नाम तासु परमेष्ठिसहाय । जैनधर्म और समाजकी सेवा करते हुए व्यतीत
जैन प्रन्थमें रुचि बहकर,मिथ्या धरम न चितमें धरे १४ हा है। पर उनका विशेष सेवा कार्य महान ग्रन्थों
सो सस्वारथ सूत्रकी, रचो वचनिका सार । की टीका कार्य है जिसे उन्होंने निःस्वार्थ भावसे नाम जु अथेप्रकाशिका, गिणती पांच हजार ॥ १५ सम्पन्न किया है। उनका यह टीका कार्य संवत्
सो भेजी जयपुर विर्षे, नाम सदासुख जास ।
सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥१६ १९०६ से संवत १९२१ तक हुश्रा है इस १५ वर्षके
अग्रवाल कुलश्रावक कीरतचन्द्र ज ारे माहिसुवास । अर्से में उन्होंने ७ ग्रन्थोंकी टीकाएं बनाई हैं ।
परमेष्ठी सहाय तिनके सुत, पिता निकटकरि जिनके न म इस प्रकार है:
। शास्त्राभ्यास ॥१७॥ भगवती आराधना, तत्त्वार्थसत्र, नाटक समय
कियो ग्रंथ निज परहित कारण, लखि बहु रुचि मार, अकलंक स्तोत्र, मृत्यु महोत्सव, रत्नकरण्ड
जगमोहनदास। श्रावकाचार और नित्यनियमपूजा संस्कृत।
तत्त्वारथ अधिगमसु सदासुख, रास चहुँ दिश __ इन सब कार्योंसे पंडितजोकी विद्वत्ता और सेवा
अर्थप्रकाश ॥१८॥ कार्यकी प्रशंसा केवल जयपुर तक ही सीमित नहीं इन सब उल्लेखोंसे पंडितजीके सेवा भाबी जीवरही; किन्तु वह जयपुरसे बाहर पारा आदि प्रसिद्ध नकी झोंकीका बहुत कुछ चित्र सामने आ जाती है। नगरों तक पहुँच चुकी थी। चुनांचे आरा-निवासी अन्तिम जीवन और समाधिमरण पंडित परमेष्ठीसहाय जी अग्रवाल ने अपने पिता कीरत- पंडितजीका यह सुखद जीवन दुर्देवसे सहन चन्द्रजी के सहयोगसे जैन सिद्धान्तका अच्छा ज्ञान नहीं हुआ। और उनके अन्तिम जीवन में एक ऐसी प्राप्त किया था और बड़े धर्मात्मा सज्जन थे, और उम
दुखद घटना घटी, जिसकी स्वप्नमें भी किसीको समय आरामें अच्छे विद्वान समझे जाते थे। उन्होंने
कोई कल्पनाही नहीं हो सकती थी। पर उन्हें अपना माधर्मी श्री जगमोहनदासकी तरवाथ विषयके जानने
वृद्धावस्थामें इष्ट वियोग-जन्य असह्य दुःखकी वेदकी विशेष अभिरुचि देखकर स्व-परहितके लिये अर्थ
नाको सहसा उठाना पड़ा। अर्थात् उनके एक मात्र प्रकाशिका' नामकी एक टीका पांच हजार श्लाक
इकलौतेसुपुत्र गणेशीजालजोका वीस वर्षकी अल्पाय प्रमाण लिखी थी और फिर उसे संशोधनादिके लिये
म ही अचानक स्वर्गवास हो गया। गणेशीलालजीका जयपुरके प्रसिद्ध विद्वान पं. सदासुखदासजीके पडितजीने केवल पालनपोषण ही नहीं किया था पास भेजा था। पंडित सदासुखदासजीने संशाधन किन्तु पढ़ा लिखाकर सुयोग्य विद्वान भी बना दिया सम्पादनादिके साथ उस टीकाको पल्लवित करते हुये था। और समाजको उनकी सेवाका सुयोग्य अवसर ग्यारह हजार श्लोक प्रमाण बनाकर वापिस आरा प्राप्त होने ही वाला था कि कालने उसे बीच में ही कवभेज दिया था। इस टीकाके सम्पादनकायमें उनका जित कर लिया। जो पंडितजी की आशालताओंका पूरे दो वषका समय लगा था। और उसे उन्होंने केन्द्र बना हुआ था और पंडितजी उसे अपना उत्तसं० १६१४ में वैशाख शुक्ला ररिवारके दिन पूर्ण राधिकार सोपकर सर्व प्रकारस निश्चिन्त होकर किया था। यह टीकाभो बहुतही प्रमेय-बहल, सरल अपना शेष जोवन शांतिसे व्यतीत करना चाहते थे। तथा रोचक है। जैसा कि उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिके पर विधिन बीच में ही रंगमे मंग कर दिया। फलतः निम्न पद्योंमे प्रकट है
परिणाम वही हुआ जो होना था। इस असह्य "पूरवमें गंगातट धाम,अति सुन्दर पारा तिस नाम। दखद घटनाका आपके जीवनपर बहुत प्रभाव पड़ा।