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अनेकान्त
[वर्ष १०
नेत्रसिंह नामके अपने एक प्रधान शिष्यका भी कबहुँ भूलि न परिनए, ज्ञायक शुद्ध स्वभाव ॥८६॥ उल्लेख किया है पर वे कौन थे और कहांके निवासी नेमिनाथगस भी एक सुन्दर कृति है जिसे मैंने थे यह कुछ मालूम नहीं होसका ।
मं० १९४४ में जयपुरमें आमेरके भट्रारक महेन्द्रकीर्तिके उक्त पाठके अतिरिक्त पांडे रूपचन्द्रजीकी निम्न ग्रंथभंडारको अवलोकन करते हुए एक गुटकेमें देखा कृतियोंका उल्लेख और भी मिलता है जिनमेंसे रूप- था और उसका आदि अंतभाग नोट किया था। परचन्द्र-शतक, पंचमंगलपाठ और कुछ जकड़ो आदि नुबह मेरी नोटबुक इस समय सामने न होनेसे प्रकाशित भी
परन्तु नेमिनाथ-रास और उसके मम्बन्धमें कुछ न लिख कर उनकी अन्य रचअनेक पद तथा संस्कृतका उक्त पाठ अभी तक अप्रका- नामोंके सम्बंध ही विचार करता हूं। शित ही हैं। रूपचन्द्रशतकमे सी दौहे पाये जाते है, इनकी एक और नई रचना प्राप्त हुई है, उसका जो बड़े ही शिक्षाप्रद हैं और विषयाभिलाषी भोगी जनों नाम है, 'खटोलनागीत' । इन रूपक खटोलनागीत को उनसे विमुख कराने की प्रौढ शिक्षाको लिये हुए में १३ पद्य दिय हए हैं जो भावपूर्ण हैं और आत्महै। साथ ही प्रात्मम्वरूपके निदर्शक है । पाठकोंकी मंबोधनकी भावनाको लिये हुए है। उनमें बतलाया है जानकारीके लिये कुछ दोहे लिखित गुटकेपरमे नीचे कि यह जीव समाररूपी रति-मन्दिरमें एक खटोलने दिये जाते हैं:
पर लेटा हुआ है, जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ मेवन विषय अनादित, तिसना कभी न बुझाय। रूप चार पग है, काम और कपट दो सीरा तथा ज्यों जलनै परितापती, हंधन सिग्वि अधिकाय ॥२६॥ चिन्ता और रति दानों पाटी हैं। वह अविरत आदि परकी संगति तुम गए, खोई अपनी जाति । दृढ़ वानोंसे बुना हुआ है, जिसमें मिथ्यात्वरूपी श्रापा-पर न पिछानहू, रहे प्रमादनि माति ॥४२॥ विशाल 'माई' लगी हुई है। वह आशारूपी अड़पर संजोगते बंध है, पर वियोगत मोख । वार्यान और शंकादिक पाठ दोपरूप मालोंसे भरा चेतन परक मिलनमें, लागत हैं बहु दोष ॥४६॥ हुआ है, मनरूपी बाढ़ईने उसे बनाया और गढ़ा मोह मनै तुम अापको, जानन हो परदर्व । है। ऐसे उन खटोलनेपर यह जीवरूपी पथिक ज्यों जन मातो कनकतो, कनकहि देम्बै सर्व ॥५१॥ राग-द्वेषरूपी गेडुवा और कुमतिरूपी सुकोमल सौर पाहन माहि सुवर्ण ज्यों, दारु विर्ष हुत भोज। से शरीरको ढककर पर-परिणतिरूपी गौरीके साथ त्यों तुम व्यापक घट विषै, देखहु कर किन खोज ॥५३॥ सो रहा है, मोते हुए उसे विपयकी अभिलाषा पुहपन विष सुवास ज्यों, तिलन विधैं ज्यों तेल। हुई, उसी समय पांच इन्द्रियरूपी चोरोंने मिलकर त्यौं तुम घटमें रहत हो, जिनि जानह यह खेल ॥५४॥ उसके आवास (निवास स्थान) को लूट लिया। दरशन ज्ञान चरितमें, वमै वस्तु घट मांहि। इस जीवको अनादि काल सोते हुए व्यतीत होगया मृरख मरम न जानही, बाहरि खोजन जाहि ॥५२॥ तो भी वह नहीं जागा, तब श्रीगुरुने सम्यक्त्वरूपी चेतनके परचै बिना, तप जप सब अकयत्थ । विहान (सवेरा) के होनका संकेत किया और कहा कन बिन तुष ज्यौं फटकतै, क न पावै हन्थ ॥८॥' कि अब काल रात्रि व्यतीत होगई है, और ज्ञानचेतनसौं परचै नहीं. कहा भये व्रत धारि । सूर्यका उदय हुआ है, जिसे सुनकर इस जीवका सालि विहूने खेत की, वृथा बनावत वारि ॥८६॥ भ्रमरूपी अज्ञान नष्ट हो गया और वह अपने आत्मबिना तस्व परचे लगत, अपर भाव अभिराम । स्वरूपको पानेके लिये उत्सुक हो उठा, और तत्काल नाम और रस रुचित हैं, अमृत न चाख्यौ जाम ॥८॥ ही खटोलनेसे उठकर और अशेष परिग्रहका परिसुने परिचये अनुभए, वार वार परभाव ।
त्यागकर दिगम्बर वेष धारण किया तथा समाधिमें