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________________ किरण ] मौर्य साम्राज्य का संक्षिप्त इतिहास खंभों, वहीं से प्राप्त मिट्टोके तीन बर्तनों, अशोकके छोटे मोटे उलटफेरके साथ इस प्रसंगका वर्णन है। मारनाथ स्तंभके पाससे प्राप्त सिकों और रामपुरवा अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीको निमिक्तझानसे स्तंभके पाससे प्राप्त सिकोंपर भी यह चिन्ह विदित हुआ कि उत्तर भारतमें शीघ्र ही भीषण मिला है। पहाडीपर अर्धचन्द्र चन्द्रगुप्त मौर्यका अकाल पड़नेवाला है और ऐसे भीषण ममयमें राजचिन्ह था। स्वर्गीय डाक्टर काशोप्रसादजोका मुनिधर्मका पालना कठिन हो जावेगा। इसलिये वे मत था कि पहाडीपर चन्द्र चन्द्रगप्तका उपलक्षण अपने शिष्य-संघको लेकर दक्षिण की ओर चल दिये। है और अर्धचन्द्र चन्दका तथा पहाड़ी गुत्तका बोधक चन्द्रगुप्त भी उनका शिष्य होकर उन्हीं के साथ है। (चन्दगुत्त चन्द्रगप्तका प्राकृत रूप है) दक्षिणको चला। भद्रबाहूस्वामोकी आयु अत्यल्प शेष रही थी अतः वे कर्णाटक प्रदेशके श्रवणवेल्गोला चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था नामक स्थानमे ठहर गये। संघ अागे धुर दक्षिण जैन अनुश्रति एक स्वरसे चन्दगप्त मौर्यको तक चला गया। अपने गुरुकी वैयावत्तिके लिये जैन कहती है। उसके अनुसार चन्द्रगुप्तने चौबीम चन्द्रगुप्त उन्हींके साथ रह गया और उसने उनके श्रीतम समय तक उनकी संवा की । भद्रबाहुके परस एकच्छत्र शामन किया। फिर अपने पुत्र पश्चात् उसी स्थानपर सल्लेखनापूर्वक उसकी मृत्यु बिन्दुमारको राज सौंप २६८ ई० पू० में वह भद्रबाहु का शिष्य होकर कर्णाटक चला गया और वहीं यह तो है साहित्य प्रन्थों में प्राप्त उल्लेख । मल्लेखनापूर्वक उसकी मृत्यु हुई। टामस साहबका कथन है कि मेगास्थनीजके कथनमें भी ऐसा प्रतीत इसके अतिरिक्त उत्कीर्ण लेखोंसे भी इस प्रसंगकी पुष्टि करनेवाले प्रमाण मिलते है। किंवदन्ती है कि होता है कि चन्द्रगप्तने ब्राह्मणों के सिद्धान्तके विपक्ष में श्रमणोंक उपदेशको अंगीकृत किया था। इतना श्रवणवेल्गोलाकी चन्द्रगिरि पहाडीका नामकरण चन्द्रगुप्तसे संबंधित होनेके ही कारण हुआ है और तो निश्चित है ही कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मणधर्म नहीं वहां की प्राचीनतम वदि चन्द्रवसदिका भी चन्द्रगुप्त मानता था। स्वयं हिन्दू भविष्यपुराण उसे बौद्ध. से संबंध है। चन्द्रगिरि पहादीकी भद्रबाहुगुफामें तत्पर कहता है। लेकिन चन्द्रगप्न के बौद्ध होनेकी आज भी चन्द्रगुप्तके चरणचिन्ह स्थित हैं । यही स्थान चर्चा न तो बौद्ध अनुश्रतिमें ही मिलती है और न चन्द्रगुप्तके समाधिमरणका स्थान है सेरिंगपट्टके दो अन्यत्र कहीं। भविष्यपुराणने गलतीसे उसे बौद्ध उत्कीर्ण लेखोंमे उल्लेख मिलता है कि कल्वप्पुशिखर कह दिया है, क्योंकि उसके लेखकके लिये बौद्ध और (चन्द्रगिरि) पर महामुनि भद्रवाहु और चन्द्रगुप्त जैन दोनों ही समान और विपक्षी थे और वह उन्हें चरणचिन्ह हैं। श्रवणवेधगोलाके अनेक लेख एक मानता था। विपक्ष होने के नात दोनों ही उसके इस कथाको स्मरण करते और दुहराते हैं। वहांके लिये एक बराबर थे। सबसे प्राचीन लेखमें भी इस प्रसंगका उल्लेख है।' दूसरी और अनेक जैन ग्रन्थ और उत्कीर्णलेखों पार उत्काणलेखों- तथा अनेक अन्य लेखों में भी भद्रबाहु और उनके में चन्द्रगुप्तके भद्रबाहुका शिष्य होकर माधु शिष्य चन्द्रगुप्तका उल्लेख है। अवस्थामें मरणका उल्लेख मिलता है। हेमचन्द्रका परिशिष्ट पर्व, हरिषेणका बृहत्कथाकोश, देवचन्द्रका १.५०० जिल्द ३, मेरिंगपट्ट क्रमांक १४७, १४८ । राजावलिकथे, भट्टारक रत्ननंदिका भद्रबाहु चरित्र, ..ए.. जिल्द २, श्रवणबेलगोला क्रमांक ११ चिदानंदकविका मुनिवंशाभ्युदय, आदि पन्धों में ३... जिल्द २, अवयवेल्गोला क्रमांक 10,1८,५४, भद्रबाह और चन्द्रगप्तकी कथा मिलती है जिसमे १०,०८पादि।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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