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________________ ४०६ अनेकान्त [ वर्षे १० की सन्ताने और भाषा प्रशान्त महासागरके द्वोपपुजों अपनी होमविधिके मुकाबले में उनकी पूजाविधि में मिलती है। ये आसामसे भारत भूमिपराए और अपनाई।" यहां आकर कछतो कृष्णाङ्गजातिमें मिल गए और कुछ ईसाके हजारों वष पर्व, आर्योंके आनेसे भारतके समृद्ध प्रदेशोंमें अपनेमे पीछे आने वाला अवश्य ही बहुत प्राचीन कालमें पश्चिम भारतसे जातियोंद्वारा पचालिए गए। इस जातिका अविशेषरूप द्रविड़ लोग पाए। यह जाति आजकल दक्षिण खामी, कोल,मुएडा, सन्थाल,मुन्दरी, कक और शबर भारतके बद्ध भारतके बहु भागमें है पर आधुनिक खोजोंसे आदि जातियां हैं। एक समय था जब कि इस जा. सिद्ध है कि द्रविड़ोंका मूल निवासस्थान पूर्वी तिके लोग सारे उत्तर भारत,पंजाब और मध्यभारत भूमध्य सागरके प्रदेश है। लघु एशिया के अभिलेखतक फैल गये थे तथा दक्षिण भारतमे भी घुस गये मे वहां की जातिका नाम "मिल्ली" लिखा है जो थे । उत्तर भारत, के विशाल नदियों के कछारों में तामिल और त्रमिल्लीका पर्वरूप माल हाता है बस जाने में इन्हें बड़ो सुविधा हुई। गंगा शब्दका द्राविडोंका पुराना नाम द्रामिल भो है जो तामिल उत्पत्ति आग्नेयभाषाके खाग काग श्रादि नदी और मिल्लोका मूल रूप है। ये नगर सभ्यता वाचक शब्दोंसे कही जाती है। आर्योंकी पद-रचना वाले लोग है। इनको प्राचीन सभ्यताके अवशेष ध्वनि और मुहावरोंपर इनकी भाषाका बड़ा दजला फुरात नदियों की घाटोसे सिन्धु घाटी तक प्रभाव है। पार्योन इनके सम्पर्कमें पाकर अपनी मिलते हैं। द्रविड़ लोग व्यापारमें ममृद्ध थे तथा भाषाके रूपको वदला है।ये भौतिक सभ्यतामें आदान प्रदानकी वस्तुओंका ोिण करते थे। जो, बहुत बढ़ पर थे। इनकी संस्कृति के अनेक स्तर र कपासको खेती करते थे, कताई और है। जो भध्यभारत की उच्च विषम भूमियोंमे बनाईकी कलाका विकास चरम सोमापर था। हाथी, रहते थे या जो आर्योंके दबावक फल स्वरूप भागे ऊट. बैल और भैंसको रखते थे। वे घोड़े की सवारी थ व अब भी भविकसित हालतमे ह पर जो उत्तर जानते थे पर वाहनक रूपमें घोड़ेके रथकी जगह भारतकं मैदानमे रहते थे उनकी सस्कृतिका अवशेष बैलगाडीका विशेष प्रयाग करते थे। उपलब्ध मिट्टी परिवर्तित भास्करण के रूपमें अब भी विद्यमान के खिलौने और मूर्तियोंसे मालूम होता है कि उस है। आर्यसस्कृति और आग्नेय संस्कृतिका आदान ममय दुर्गा, शिव और लिंगकी पूजा-प्रचलित थी, प्रदान विशेषतः भारतके पूर्वीय प्रान्तों में हमा है। कितनी ही कायोत्सर्ग जैन मूर्तियां भी उस कालका आर्योने इनसे चावल की खेती करना सीखा । पुरातत्व सामग्रोसे निकजी हैं। वे अपने देवताको नारियल, केला, ताम्बूल, सुपाड़ी,हलदो, अदरक, पूजा- फन, फून चन्दन आदिम करते थे। बलि बैंगन, लोको, आदिका उपयोग आग्नेयोंकी देन है नही चढ़ाते थे। कोरो अथात् बीसीकी गणना तथा चन्द्रमासे तिथि जब कि आये बड़ी बड़ी संख्यामें आकर की गणना आग्नेय है। वे अपने मृतकोंकी पाषाण पंजाबमें व्यवस्थित हो रहे थे तब द्रविड़ समाधि बनात थे । उनके यहां परलोककी मान्यता भारतमें छोटे बड़े राज्यों में विभक्त थे । थी तथा वे विश्वास करते थे कि आत्मा अनेक अग्नेयोंको पराक्रान्त कर इन्होंने मगध और कामरूप पर्यायोंमें जाती है। उनकी इस विचारधारा से में राज्य जमाये तथा दक्षिण में कलिंग, केरल, चोल आर्यो को पुनजन्मका सिद्धान्त मिला। डा. सुनीति और पाण्ड्य देशोंमें। द्रविड़ोंने बहुत पहले अपने कुमार चटर्जी लिखते हैं कि आर्यो ने अनार्यो से कर्म जहाजी बेड़ेका विकास किया था तथा दक्षिण भारत, सिद्धान्त, पुनर्जन्म और योगाभ्यासकी नकल की लंका और हिन्द द्वीपजोंमें उपनिवेश बनाने वाले
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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