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________________ ६५ अनेकान्त [वर्ष १० व जीव हैं उनका शरीर उनको भी मुम्बका साधन समय-समय पर उसका स्मरण आजाने पर आत्मा व सर्वस्व क्यों न हो। दु:ग्वी होकर उसका बदला लेने का प्रयत्न करने लग शरीरके म्वस्थ रहते हार भी अच्छीतरह जाता है। सुग्वपूर्वक समय विताते हुए भी आत्मामें एक चिंता- जब मेरी आत्मा मन-संबंधी दुखोंके कारणोंसी बनी रहती है, उधेड़-बुन सी लगी रहती है, से बचना चाहती है, तो फिर मुझे दूसरे प्राणियोंके उलझन-मुलझन-मी रहती है। कभी तो मन इतना हृदयमें चिन्ताओंके उत्पन्न करनेवाले कार्य करना सुग्वी-सा होजाता है कि बस मेरे बराबर कोई दूसरा कैसे शोभा दे सकते है ? जैसा में वैसे वे -इसकी नहीं, मब कुछ मेरे लिये और मेरे ही अधीन कसौटी तो आत्मा स्वय ही है कोई दूसरा अन्य है । और जो चीज वाकी रह गई है वे मुझे पदाथ नहीं, अपने आप ही वैध है, अपने विचार ही अधिक-से-अधिक प्राप्त होनी चाहिये । और कभी औषधि है, अपनी आत्माके अनुकूल दुसरी आत्माइतना दु:खी होजाता है कि मेरे बराबर कोई प्रोंके मुख व दुःखका अनुभव ही शान्ति है, और दु:ग्वी नहीं, अतः बरावर बेचन-सा बना रहता है। सत्य है, शुभ है, भाव अहिंसा है और इसी प्रकार जो पदार्थ या सम्बन्ध उसको प्यारा या सुखरूप के अधीन रहते हए दमरे जीव व पदार्थोसे व्यवजान पड़ता था वही कुछ समय पश्चात् बुरा या हार व मंबंध सत्य व्यवहार, शुभ व्यवहार और दुःखरूप जान पड़ने लगता है-किसी वस्तु या व्यावहारिक अहिंसा है। सम्बन्धसे मलकी चिन्ता और किमी सम्बन्ध या जितना भी व्यवहार है वह सब मेरी आत्मा मेलको छोड़ने की चिन्ता लगी रहती है-किमीक की खशी व सखक लिये है। श्रात्माका सावधामेलसे जिस समय जिम मेलमें लाभ दीखता है. नता-पर्वक रहते हए जो अपने शरीरके साथ व वह सुखी होजाता है उसी मेलमें जिम समय हानि अन्य शरीरसहित व शरीररहित जड़ पदार्थों के देखता है वह दुःखी हाजाता है-इस तरह शारी- साथ जो व्यापार है उसका ध्येय अपनी व दूसरी रिक सुख-दुःखसे भिन्न दृसरा कारण मन-सम्बन्धी नाही भी दुःख-मुख होता है। अपनी आत्माका पास्तविक ध्येय आत्माको मन-सम्बन्धी दुःखको दूर करनेके लिये कोई न स्वतन्त्र शरीरके निमित्त तथा व्यवहारसे रहित तो औपधि है, न कोई चिकित्सा है, न एकके मनकी करनका ही है, ताकि शारीरिक दुख व मानसिक बातको कोई दूसरा जान पाता है। प्रत्येक प्राणी दुखोंसे यह प्रात्मा सदाक लिय निवृत हो जाव स्वयं अपने आप ही अनुभव करता रहता है, और जब तक आत्मा शरीरकं साथ रहते हुए शरीर मन-सम्बन्धी दुःखाम रहिन होने के उपाय मोचता और आत्माको एक मानन के कारण अपना पूर्ण श्रारहता है। त्मवल प्राप्त नहीं कर लेगी तब तक शरीरका संबध व जब कोई गाली देता है, भूठ बोलता है, माल शरीरके निमिनमे उत्पन्न होनेवाले शारिरिक व चुराकर ले जाता है, धोग्वा दता है, छड़ता है, मानसिक दुःग्य आत्माको अप्रिय लगनवाले दुःख मारता है, पीटता है, किमी स्थानमे बंद कर देता भोगने ही पड़ेगे। है तब उस समय मन-संबंधी दुःग्व, अधिक उत्पन्न आत्मा इम मनुष्य-देहको प्राप्त होकर जो भी हो जाता है, जो कि एक ऐसा वैरका-चिन्ताका- व्यवहार शरीरकी स्थितिको भली-भाँति रखनेके दुःखका बीज आत्मामें उत्पन्नकर देता है जिससे लिये कर रही है उसका मूल प्रयोजन यह ही है कि
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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