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________________ कविकर बनारसीदास (ले०-कुमार वीरेन्द्रप्रसाद जैन ) - *शांत-रसकी भगीरथी प्रवाहित करनेवाले कविता-स्रोत वहायाः जिसका पानकर भग्नाश अध्यात्मवादका कोना-कोना झांक आनेवाले लोक- जनताने विषयात्मक वृत्ति वदली। ऐसे महान कविकल्याणार्थ सवस्व समर्पण करनेवाले, उदार-चेता शिरोमणि बनारसीदासजीके जीवन-वृत्तपर एक कर्मठ, कविवर बनारसीदासजीने स्वकृति-सुधासे विहंगम दृष्टिपात करना आवश्यक है। उनका शृंगारोन्मुख ज्ञानहीन जनताको संसार-सागरसे जीवन-वृत्त जाननेके निमित्त, हमें उनके अनठे तिरकर, उस परमसुख एवं परमानन्द मुक्तिको ग्रन्थ 'अर्धकथानक' का ही आश्रय लेना पड़ेगा, प्राप्त करनेके हेतु सीधा-सच्चा-सरल पथरूपी उसके आधारपर जन्मादि इसप्रकार है: "सम्वत् सोलह-सौ तेताल, माघ मास सिन पक्ष रसाल । कुछ समय प्रति-दिन आत्माको ऐसा मिल जावे एकादशी धार रविनन्द, नखत रोहिणी वृषको चन्द ॥ जबकि आत्मा आत्माके लिये अपनी आत्माके रोहिन वितिय चरन अनुसार, खरगसैन घर सुत अवतार । अन्दर अपनी आत्माका ध्यान करनेका अभ्यास दीनों नाम विक्रमजीत, गावहिं कामिन मंगल-गीत ॥" करने लग जावे-अर्थात् दृष्टि अपने इष्ट ध्येयपर कविवरका अध्ययन सात वर्षकी अवस्थासे जमा लेवे । जब तक शरीर स्वस्थ रहेगा-तब तक ही प्रारम्भ होगया था, इससमय आप प्रकाण्ड पं० यह ध्यान व दृष्टि बनती रहेगी, और आत्मा शरीरकी शक्तिसे भिन्न अपनी निज शक्तिको शनैः शनैः पाण्डे रूपचन्द्रकी छत्रछायामें विद्योपार्जन करते थे, बढ़ाती चली जावेगी । ज्यों ज्यों आत्मशक्ति बढ़ती परन्तु मुगलराज्यके भयसे आपका दस वर्षकी आयुमें जावेगी त्यों त्यों मानसिक दुःख कमती होते चले पाणिग्रहण हो गया, इसके कुछ समय तक अध्य यन कार्य बन्द रहा। चौदह वपकी अवस्थामें आपजावेगे और अन्तमें ममस्त मानसिक दुःखोंके कारणोंको आत्माम भिन्न करके निज पूर्ण ध्यान ने पुनः पढ़ना प्रारम्भ किया। में आत्मा लीन व एक होकर सदाके लिये पूर्ण ज्ञान, अब यह कविवरकी यौवन-अवस्था थी। दर्शन, सुख, वीर्यमे रम जावेगी । यह ही मनुष्य उनका गात उन्मादयुक्त था, वे इसके प्रभावसे जन्मका पूर्ण फल है, जिसे प्रत्येक आत्मा चाहती है विरक्त न रह सके, इसके सामने सिर टेकना पड़ा, और यही प्रत्येक आत्माका स्वभाव है शरीरके विपय-वासनामे लिप्त होना पड़ा। यथासाथ वास्तविक व्यवहार इसकी ही सिद्धिके अर्थ 'तजि कुल कान लोककी लाज, भयो बनारसि श्रासिखबाज । हैं। जितने प्राणी इस प्रकार सिद्ध अवस्थाको प्राप्त और........... हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान हैं शरीरसे रहित हैं- "कवहूं श्राइ शब्द उर धरै, कबहूं जाइ प्रासिखी करै । दुःखोंसे रहित हैं-पूर्ण मुग्वी है मैं उन्हींका पोथी एक बनाई नई, मित हजार दोहा चौपई ॥ सहारा लेकर और जिस मार्गपर वे चले हैं उसी तामें नवरस रचना लिखी, पै विशेप बरनन प्रासिखी" पर चलकर उन जैसा बननेका प्रयत्न करता हूँ। कविवरके तीन विवाह हुए थे, तथा उनका
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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