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________________ वर्ष १०] अनेकान्त ६७ - वैवाहिक जीवन आनन्दमय-सा रहा, आपकी मृत्युके विषयमें किंवदन्ती है, कि कविवर जब मृत्युपत्नी आदर्श एवं पतिव्रता थी, आपके नौ पुत्र हुए, शय्यापर पड़े थे उस समय कंठ रुध गया था, और पर दुर्भाग्यवश सब ही महाकालके पथिक बने। तब कविवर अपना अन्त समय समझ भगवत् ___"कविवरको काव्य-कलाके दर्शन तो बाल्याव- ध्यानमे निमग्न हो गए। आपकी मौन-मग्नता देख स्थासे ही हो गये थे, और कवित्व उनका जीवन- मूर्ख जन कहने लगे कि आपके प्राण माया एवं पारिसहचर-सा होगया था। इस समय आपकी कविता- वारिकजनोंमे अटके है । इसपर कविवरने संकेतोंसे धारा शृगार-रममें ही प्रवाहित हुई थी, किन्तु पट्टी और लेखनी मांगकर दो छन्द गढ़कर लिख परिवर्तन हुआ । प्रकृतिका यह अटल नियम है- दिये । रातके बाद दिन होता है। "ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना । मंध्याके बाद प्रभात होता है। प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनन्त स मोहना ॥ मरणके बाद जन्म होता है। जापरजको अन्त, सत्यकर मानना । अवननिके बाद अभ्युदय होता है। चले बनारसीदास, फेरि नहि भावना ॥ एकबार कवि-पुंगव गोमतीके तटपर अपनी हमारे चरितनायक, कर्मवीर, कविचडामणि रसिक-मंडलीके माथ शीतल समीर सेवन कर रहे बनारमीदासजीका काव्य-निझर शान्तरसके सलिथे। सहसा कविवरकी दृष्टि गोमतीकी तरल लका बहा है; उसमे अलौकिक आभा है, अध्यातरंगोंपर पड़ी और वे उसकी तुलना मनसे करने त्मवादको चरम-सीमा है, मन मोहनेकी महान लगे, तब वे वैगग्यात्मक भाव-सागरमें स्नान करन क्षमता है और है उसमें सौष्ठवना, गेयता तथा लगे और एकाएक बगलमे दबा हुआ म्वरचित शृङ्गा. गम्भीरताके साथ-माथ सरसता। रिक काव्य गोमतीकी लोललहरोंमे सदाके लिए उनकी कविता गीतात्मक है, जो अपनी मधुर समर्पित कर दिया।। इतना महान त्याग क्षणभरकी स्वर-लहरीस सीधी मनुष्यके वक्षःस्थलपर ठहरती सतिक प्रभावसे कर डाला । इसपर उनके साथियों स कर डाला । इसपर उनक साथिया है और हृदुस्थलके प्रत्येक मृक्ष्म भाग नकको ने क्रन्दन किया पर अब क्या होमकता था। यहां मंकत करती है। जिसकी झंकारस मानवके मानससे सं कविका जीवन-उपन्याम मदाके लिये पलट गया। सात्विकता, धर्मपरायणता और दयाकी स्वच्छ इतना ही नहीं उनका लौकिक प्रेम पारलौकिकतामे सरिता बह निकलती है जो मंसारकी संतप्तताम परिणत हो गया। यथा शीतलताके मंचारणार्थ महायता प्रदान करती है। 'तब अपजसी बनारसी अवजस भयो विख्यात ।' उन्होंने तात्कालिक प्रचलित मभी काव्य-पद्ध अबसे आपका शेपांश समय व्यापार तथा नियोंमे मफलकाव्यांगपूर्ण रचना की है । आपने धर्म-प्रभावनामें ही व्यतीत हुश्रा । आपने व्यापार- अवधी और खड़ी बोलीको अपनाया है। उसमे में बड़ी कठिनाइयोंका सामना किया। आपमे स्वा. भी शुद्ध तत्मम तथा तद्भव शब्दोंको और रूपकों भिमान था। यही कारण था कि आपने जहॉके शाह तथा अंलकारोंको व्यवहृत कर भाषाको पूर्ण शाहजहाँके यहां सन्मान पाया, शाहजहां आपकी साहित्यिक बना दिया है । भाषा प्रांजल तथा धर्मपरायणता, साधता तथा दृढ़तापर मंत्रमुग्ध-सा अध्यात्मवाद जैसे नीरम विषयमें होनपर भी रहता था । अर्धकथानक लिखनेके पश्चात् आप ओज, माधुर्य, प्रसाद आदि गुणोंमे युक्त है,। कबतक जीवित रहे, यह अज्ञात है। कविवरकी उनके हृद्रूपी सरोवरमे चार बृहन् कुसुम
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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