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________________ अनेकान्त [वर्ष १० यहां जिस गाथाको समर्थनमें उद्धृत किया गया ईषत् (अल्प) अर्थ करके और कौपीनमात्र वस्त्रधारी वमनन्दिश्रावकाचारकी वही गाथा है जिसे को 'अचेलक मानकर चकारका लोप करते हुए उपर नं०८ में वसुनन्दी प्राचाय के विचारका 'ऐलक' (अ+एलक =ऐलक) पदकी यह कल्पना को तेहए दिया जा चुका है। इसमें ११ वी गई हो । परन्तु कुछ भी हो, उपलब्ध जैन साहित्यकी प्रतिमाके दो भेदोंका उल्लेख जरूर है परन्तु उनके दृष्टिसे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि लिए 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' ऐसे दो नामोंका के 'ऐलक पदकी कल्पना विक्रमकी ५७ वीं शताब्दीसे विधान नहीं है, और इसजिये इस गाथापरसे ११ पूर्वको नहीं वी प्रतिमाके केवल दो भेदोंका हो समर्थन होता है उनके नामोंका नहीं। भेदोंका यह नामकरण यदि यहाँ पर में इतना और भी प्रकट कर देना इससे पहिले किसी आचायेके द्वारा हुआ होता तो चाहता हूँ कि कविराजमल्लने ११ वी प्रतिमा संहिताकार कविराजमल्लजी उसे इस अवसरपर भेदोंका जो अपार निर्दिष्ट किया है , यहाँ जरूर देते, न देनेसे साफ जाना जाता है कि आचार्यके कथनसे जहाँ बहुत कुछ मिलता जनता यह नामकरण पालेका न होकर उन्हींका किया हुआ है वहां कितने ही अंशोंमें उससे विभिन्न भी पाया है और इसलिये जबतक इससे पूर्वका कोई दूसरा जाता है; जैसे प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिये वसनी स्पष्ट प्रमाण सामने न आजाए तब तक यहो मानना एक ही वस्त्रका विधान करते हैं तब ग समुचित होगा कि ११ वी प्रतिमाके वसुनन्दिकृत उसके साथ 'एक वस्त्र सकौपीनं' कहकर कौपीन दो भेदोंका 'क्षुल्लक' और 'ऐजक' के रूप में यह और जोड़ते हैं, वसुनन्दीने उसके जिये विकल्परूपसे नामकरण कवि राजमल्लजीका किया हुमा है। करपात्रमें भी आहारका विधान किया जो कि द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकका नियमित प्राचार है, परन्तु उन्होंने द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिए 'ऐलक' नाम किस राजमल्ल वेसा विधान न करके उसको द्वितीयोत्कृष्टदृष्टिको लेकर दिया है यह बात अभी विचारणीय के लिये हो निधारित करते हैं-उनके मतसे प्रथमोहै। द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिये कौपीन मात्र वस्त्रका स्कृष्टश्रावक काँसी अथवा लोहेका पात्र रखता है विधान किया गया है और यह वस्त्र बहुत अल्प होता है जबकि निम्रन्थ दिगम्बर साधु इसे भी नहीं उसीमें भोजन करता है और अपनी पांच घरोंसे रखते और इसीसे 'अचेलक' अथवा 'आचेलक्य व्रत भ्रामरीवृत्तिद्वारा संचित भिक्षामेंसे यथावसर दसरे के अनष्ठाता' कहलाते हैं। द्वितीयोत्कृष्टश्रावक उन्हींके किसी अतिथिको गृहस्थके समान दान भी देता है मार्गका अनुगामी तथा अभ्यासी होता है। तथा दानके अनन्तर यदि कुछ भिक्षा पात्रमें अव. पिनी-कमण्डल-धारणादिके साथ साथ वह केशोंका लाटीसहिताके ७ ये सगमें एक पद्य निम्न प्रकार लौच करता और करपात्रमें आहार करता है। से दिया हुआ हैहो सकता है कि 'अचेलक' पदमें प्रयुक्त हुए 'अ' को कौपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचं यििक्रया। विद्यते चैलकस्यास्य दुर्द्धर व्रतधारणम् ॥६०॥ तलक: स गृहणाति वस्त्र कौपीनमात्रकम् । इसमें 'चैलकस्य पदका रूप यदि 'चेलकस्य' हो तो खोचं स्मशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमण्डलुम् ५८ 'विद्यतेऽचेलकस्य' इन दो पदोंकी उपलब्धि स्पष्ट हो + + जाती है और तब यह सहज ही कहा जा सकता है कि ईर्यासमितिसंशुद्धः पय टेद गृहसंख्यया । ग्रन्थकारने ऐलकको स्वयं अचेलक रूपसे उल्लेखित भी द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ॥६३॥ किया है।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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