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किरण ११-१२
मात्र वस्त्रका धारक था, हलकी पिच्छी रखता था, लौंच किया करता था और कर-पात्रमें दूसरे तीसरे दिन एक बार भोजन किया करता था । यद्यपि इन लक्षणों से वह साफ तौरपर द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक जान पड़ता है, जिसके लिए पं० भाशावरजी और उक्त धर्म संग्रहश्रावकाचार के कर्ता पं० मेघावीने, अपने अपने ग्रन्थों में 'आर्य' संज्ञाका प्रयोग किया हैं, तो भी यहां उसके लिए 'आर्य' विशेषण न देकर इस बात को और भी बिलकुल साफ कर दिया है कि जिसे हम 'द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक' अथवा 'आर्य' कहते है, वह 'क्षुल्लक' ही है-उससे भिन्न दूसरा म नहीं है। और गुरुदासाचार्यने तो, अपने प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चूलिकायें, तुल्लकों के लिए यह साफ लिखा ही हैं किं वे क्षौर कराओ या लोच करो, हाथमें भोजन करो या वर्तनमे और कौपीन मात्र रक्खो या एक वस्त्र, परन्तु उन्हें 'क्षुल्लक' कहते
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ऐलक-पद- कल्पना
उनके इस कथनमें ११ वीं प्रतिमा के दोनों भेदों का, चाहे वे पहिले से हों या पोछेसे कल्पित किये गये हों, समावेश हो जाता हैं। और इसलिए यह कहना चाहिए कि आगम में उक्त दोनों प्रकारके श्रावकों के लिए 'क्षुल्लक' संज्ञाका समान रूपसे विधान पाया जाता है ।
जो लोग प्रथम भेदको ही क्षुल्लक मानते हैं और दूसरेको चल्लक स्वीकार नहीं करते बल्कि उसके लिए 'ऐलक' नामकी एक संज्ञाका व्यवहार करते हैं, उनका यह श्रचरण जैनागमके कहाँ तक अनुकूल है उसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं ।
यहां पर मैं इतना और बताला देना चाहता हूँ कि धर्मसंह श्रावकाचार वि० संवत् १५४१ में बनकर समाप्त हुआ है और उस वक्त 'दीपद' नामका उक्त taraक मौजूद था। चूंकि स्वरूपकी दृष्टिसे इस
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तुल्लक और आज कल के 'ऐलक' में परस्पर कोई भेद नहीं पाया जाता, इसलिए धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उपर्युक्त उल्लेखसे यह नतीजा निकलता है कि जिसे हम आज 'ऐलक' कहते हैं, उसे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में भी क्षुल्लक कहते थे ।
(१५) अब देखना यह है कि पिछले साहित्य में 'लिक' नामको उपलब्धि कहींसे होती है या कि नहीं- अर्थात् विक्रमको १६ वीं शताब्दीसे बाद के किसी संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ में 'ऐलक' पदका होगा कि हां, 'लाटी संहिता' नामका एक संकृतमंथ ऐसा क्या कोई उल्लेख पाया जाना है ? उत्तरमें कहना जरूर है जिसमें 'ऐलक' पदका उल्लेख ही नहीं मिलता बल्कि ११ वीं प्रतिमा के द्वितीय भेदवर्ती उत्कृश्रावककी संज्ञा के लिये उसका स्पष्ट विधान किया गया है। यह ग्रंथ पंचाध्यायी आदि ग्रन्थोंके रचियता कवि राजमल्जकी कृति है और इसकी रचन विक्रम संवत् १६४१ में आश्विन शुक्ला दशमीको हुई है। इसके ७वें सगमें, 'प्रनुद्दिष्टभोजन' नामकी ११ वीं प्रतिमा का वर्णन करते हुए, उत्कृष्टश्रावकके दो भेद करके उनके क्रमश. 'तुल्लक' और 'ऐलक' ऐसे दो नाम दिये गये हैं। साथ ही 'उक्तंच' रूपसे एक गाथां प्रमाण में उद्धृत की गई है । यथा:
उत्कृष्टः श्रावको द्वधा चुल्लकश्चलकस्तथा । एकादशतस्थौ द्वौ स्त द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥ ५६ ॥
उक्त च-
एयार [स] म्मि ठाणे उक्किट्ठो साव ओहवे दुविहो
त्थे पढमो कोवोपरिग्गहो विदिओ५७ रथों के ये नम्बर देहलीके पंचारती तथा नयामन्दिर की हस्तलिखित प्रतियों में दिये हुए है। मुद्रित प्रतिमें प्रथम पथका ११ नम्बर दिया हुआ है, और दूसरे पर कोई नम्बर ही नहीं दिया जब कि इस सर्गके प्रारंभिक दो पद्योंपर १--१ नम्बर दो बार दिया है। और इससे हस्तलिखित प्रतिकायह नम्बर कपड़ी ठोक जान पड़ता है ।