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३६८ अनेकान्त
[वर्ष १० विष्णुकुमार मुनि और प्रद्य म्नकी कथाओंमे चल्लक ( ) वादिचन्द्र सरि अपने 'यशोवरचरित. पदवीधारक श्रावकका उल्लेख है I
में, जिसका निमाण-काल वि० संवत् १६५७ है. (ख) विष्णकुमार मुनिकी कथामें, प्रभाचन्द्राचाये पहले शिक्षा (११ प्रतिमा) फिर दीक्षा (मनिदीना और ब्रह्मनेमिदत्तने भी शल्लक पदका उल्लेख किया और फिर भिक्षाका विधान करते हुए, एक स्थानपर और उस चल्लक श्रावकका नाम. जो विष्णुकुमार लिखते है कि वह संसारसे भयभीत राजा अपने पनि पास अकम्पनाचार्यादि मुनियों के उपसगेका गुरुकी दी हुई शिक्षाको ग्रहण करक और अपने सर्व
चार लेकर गया था, पुष्पदन्त' दिया है। साम्राज्यका छाड़कर उस वक्त 'क्षुल्लक' हो गया
(ग विक्रमकी १० वीं शताब्दीके विद्वान् श्रा. और उसने गुरुकी आज्ञासे कौपीन, एक वस्त्र भिक्षा. देवसेनाचार्य, अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थमें, कुमारसेन- पात्र, औरकमडलु धारण कर लिया। यथाद्वारा वि० सं० ७५३ में काष्ठासंघकी उत्पत्ति बतलाते
शिक्षां श्रित्वा गुरोदत्ता संसारभयभीलुकः। हुए, लिखते हैं कि कुमारसेनने 'क्षुल्लक' लोगोंक
हित्वाहि सर्वसाम्राज्यमभवत्क्षुल्लकस्तदा ॥३०॥ लिए 'वीरचर्या' का विधान किया है।
भिक्षापात्रं च कौपीनमेक स्त्रं कमडलु। इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लयलोयस्म वीरचरियतं ।
अधारि वचसा साधो दयांगिक्षमया सह।।३०।। (पूरा प्रकरण देखो-गाथा नं०३३ से ३६ तक)
-मगे १७ दर्शनसारके इस प्रकरणसे साफ जाहिर है कि
इन सब अवतरणोंको ध्यानमे रखते हुए, और वि० संवत ७१३ से भी पाहल से तुलजक पदका प्रायश्चित्तसमुच्चयकी चालकाके उस अवतरण अस्तित्व है और उस समय मूल संघर्म वल्लकोंके
पर खास तौरसे लक्ष्य देत हुए जो ऊपर नं. ७ में लिए वीरचर्याका निषेध था।
उद्धृत किया गया है और जिसमें साफ तौरसे (घ) यशस्तिल कमें श्रीनोमदेवसरिमी 'क्षल्लक' तुल्जकका स्वरूप बतलाया गया है यही मालम पद का उल्लेख करते है और लिखते है कि पोल्लकों होता है. इस समूची ११ वी प्रतिमाके धारका के लिए परस्पर 'इच्छाकार' वचनके व्यवहारका सुप्रसिद्ध और रूढ़ नाम 'क्षल्लक है। बाकी विधान है। यथा
'उत्कृष्ट श्रावक' यह श्रेणी (दर्जे) की अपेक्षा नाम . अहंदरूपे नमोस्तु स्यादविरतौ विनय-क्रिया। है: उद्दिष्टाहारविरत ( उद्दिष्टपिंडविरत ), उहि
टावनिवृत्त (त्यनोद्दिष्ट, उद्दिष्टवर्जी लि अन्योन्यक्षल्केष्वहमिच्छाकारवचः सदा
. -आश्वास-पृ०४०७ त्यागी), एक वस्त्रधारी, खंडवस्त्रधारी, कोपोनमात्र
धारी, भिक्षक इत्यादि नाम उसके गुण प्रत्यय नाम मल्लकापुष्पदन्तस्तं क्व नाथेति संभ्रम प्रमाक्षीद् २०-२७ हैं। और हमारे इम क्थनका समर्थन धर्मसंग्रह "विकृत्य क्षोल्लकं वेष मातृमोदकक्षिणा।" ४७..१।।
श्रावकाचारकी प्रशस्तके निम्न पद्यसे भी होता हैदेखो उक्त विद्वानोंके बनाये हुए 'श्राराधनामार
यः कक्षापटमात्रवस्त्रमाल धत्ते च पिच्छं लघः कथा' और 'पाराधनाकथाकोश' नामके प्रय । ब्रह्म नेमिदतके आराधनाकयाकोशका एक पद्य इस प्रकार है
लोचं कारयते सकृत्करपुटे भुक्तेचतुर्थादिभिः ।। इति प्राह तदाकार्य पृष्टोऽसौ तुल्लकेन च ।
दीक्षां श्रौतमुनीं बभार नितरां सानुल्लक: साधकः पुष्पदन्तेन भो देव कुत्र केषां गजगी ।। ६२॥ आर्यो दीपद पाख्ययात्र भुवनेऽसौदीप्यतां दीपवत
यह 'वीरचर्या' वही है जिसका कितने ही प्राचायों इस पद्यमें 'दीपद' नामके एक शल्लकको तथा विद्वानोंने ११ वी प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावक के आशीवाद दिया गया है जिसने श्रतानसे दीक्षा जिए निषेध किया है।
ली थी, और उसके सम्बन्ध में यह लिखा है कि वह
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