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किाण ११-१२
एलकपद-कल्पना यहां पहली प्रतिमा एक महीने तक, दूसरी दो महीने म्भवजन, और हवी प्रतिमा भतकप्रष्यारम्भवर्जन तक और तीसरी तीन महीने तक, इस प्रकार क्रमशः मानी है। बाको दर्शन, व्रत, सामायिक और अवधिको बढाते हए अगली अगली प्रतिमाओंके प्रोषध नामक पहनी चार प्रतिमाएं उनके यहां भी पालनका विधान है उसी तरहका अभिप्राय उन्ही नामों के साथ पाई जाती हैं जिन नामोंसे भगयहां 'अवधिवत' से सोमदेवरिका हो; अथवा वत्कुन्दकुन्दाचार्यने अपने 'चारित्त पाहुड' ग्रन्थमें इसका कुछ दूसरा ही प्राशय हो । परन्तु कुछ भी उनका उल्लेख किया है। यथाहो, इसमे सन्देह नहीं कि प्रतिमाओंका यह सब
दसण-वय-सामाइय-पोसहपडिमा अबम्भ सचित्त। कथन दूसरे दिगम्बर प्राचार्यों तथा विद्वानों के ग्रंथों
. प्रारंभ-पेस-उदिवज्जए समणभूए य॥शा से, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, नहीं । मिलता। यहां ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उदिष्ट
-उपासकदशा के त्यागी नहीं बतलाया बल्कि अनुमान्यताकी हानि
(१४) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, पद्मनन्दिश्रावकाचार, करनेवाला अथवा उसका त्यागी ठहराया है, जिसका
पूज्यपाद-उपासकाचार, रत्नमाला, पचाध्यायी (उपअभिप्राय पूर्वाचार्यों के कथनानुसार, दसवी प्रतिमा
लब्ध अंश), तत्वार्थसूत्र, तत्वार्थसार, सर्वार्थसिद्धि, (अनुमतित्याग) के विषयसे हो सकता है। दसवी
राजवातिक, श्लोकवार्तिक, धर्मशर्माभ्युदय आदिक प्रतिमावालेको यहाँ भोजनकी मात्राका घटाने वाला
बहुतसे प्रन्थों में ११ प्रतिमाओंका कथन ही नहीं है
और न उनमें किसी दूसरी तरह पर 'ऐलक' नामका लिखा है; परिग्रहत्यागसे पहिले 'आरम्भत्याग'
उल्लेख पाया जाता है । गोम्मटसारके संयममार्गनामकी प्रतिमाका कोई उल्लेख नहीं. सचित्तत्याग
णाधिकारमें ११ प्रतिमाओंके नाम जरूर हैं और नामकी प्रतिमाको पांचवीं प्रतिमा करार न देकर पाठवीं प्रतिमा करार दिया है । 'अकृषिक्रिया' नाम
उनकी सूचक वही गाथा दी हैं जो भगवत्कन्दकुन्द के की एक नई प्रतिमा पांचवें नम्बरपर दी है और
चारित्तपाहुड प्रन्थमें पाई जाती है। परन्तु उन
प्रतिमानोंका वहाँ कोई स्वरूप निर्देश नहीं किया तीसरी प्रतिमा 'सामायिक' की जगह 'अर्चा' (पूजा)
गया, इसलिए वहांसे भी इस विषयमें कोई सहालिखी है। इससे पाठक सोमदेवसरिके प्रतिमा
यता नहीं मिलती। विषयक विभिन्न शासनका बहुत कुछ अनभव कर सकते हैं। यह शासन प्रतिमाओं के नाम, विषय इस तरह पर संस्कृत-प्राकृतके प्रायः उन सभी
और उनके क्रमकी अपेक्षा श्वेताम्बरोंके शासनसे प्रासद्ध प्रासद्ध ग्रन्थाका टटोलनेपर जिनमे प्रतिमा. भी भिन्न है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दसवी प्रति- अकि कथनकी संभावना थी, हमें किसी भी प्रन्थमें मावालेको 'उद्दिष्टत्यागी' माना है और ग्यारहवीं 'ऐलक'नामकी उपलब्धि नहीं हुई। हाँ 'क्षल्लक' पद
वीका उल्लेख बहुतसे ग्रन्थों में जरूर पाया जाता है। प्रतिमाकी संज्ञा 'श्रमणभूत' दी है। इसके सिवाय उन्होंने ५वीं प्रतिमा 'कायोत्सर्ग' (प्रतिमा',६ठीअब्रह्म- उदाहरण के लिए यहाँ उनमेंसे कुछका परिचय दे देना वजेन, ७ वीं सचित्ताहारवर्जन, ८वीं स्वयमार• काफी होगा
(क) श्री जिनसेनाचार्य-प्रणीत 'हरिवंशपुराण'
में जो कि शक सं०७०५ में बनकर समाप्त हुमा है, देखो योगशास्त्रको गजाराती टीका निर्णयसागर -
देखो 'उपासकदशाका अभयदेवकृत विवरण । प्रेस बम्बईमें संवत् १९५५ की छपी हुई, पृष्ठ १३७, और
देखोहोनले (A. F. Rudolf Hoernle) उपासकदशा' का अभयदेव कृत विवरण, होनले साहब का, सन् १८८५ में छपाया हुअा, पृ. २६से२६ । का सस्करण सन् १८८५ का छपा हुमापृ. १६७ ।