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जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्थ
(ले०-श्री अनन्तप्रसाद जैन B.Sc , Eng., 'लोकपाल')
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[इस लेखमें विद्वान लेखकने जीवन-मरण, सुम्ब-दुःख, संयोग-वियोग, रोग-शोक, भारोग्य, हानिलाभ, सन्तति-सम्बन्ध, एक वस्तुका दूसरीपर अच्छा-बुरा प्रभाव और प्राकस्मिक घटनाओं जैसी विश्वकी अनेक जटिल समस्योंको हल करने और उनके हल द्वारा लोकमें सुख-शांतिका स्रोत कैसे बहाया जा सकता है उसकी दिशाका बोध करानेके लिए एक नई विचार-धारा प्रस्तुत की है। इस विचार-धाराका दृष्टिकोण वैज्ञानिक और श्राधार जैन-सिद्धांतों में वर्णित पुद्गल वर्गणायें और उनकी गतिविधि अथवा कार्य प्रणाली हैं। ये नाना प्रकारकी पुद्गल वर्गणाए अथवा पुद्गल परमाणुओंके विविध संघ या स्कंध, जिनमें कर्म-वर्गणाएं अपना विशिष्ट स्थान रखती है, विश्वके सारे परिवर्तनोंके मल में स्थित है। ये वर्गणाएं निरन्तर बढ़ी द्रति-गतिके साथ एक वस्तुमे निकलती श्रीर दूसरी वस्तुओंमें प्रवेश करती तथा परिवर्तित होती रहती हैं और इस तरह मिलबिडकर अनेक सूक्ष्म-स्थूल, स्थायी वा क्षणिक परिवर्तनोंको बराबर जन्म दिया करती हैं, जिनके लोकमें कुछ अन्य अन्य ही कारण कल्पित किए जाते हैं। हम अपने मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियोंको यदि खोटी रक्खें तो उनका वोटा फल हमको कैसे भोगना होगा और अच्छी रखनेपर अच्छे फलका उपभोग कैसे किया जासफेगा
और कैम हम विश्वकी सुख-शांतिमें सहायक हो सकेगे यह सब भी सांकेतिक रूपसे इसमें बतलाया गया है। लेख अपन विषयका प्रारम्भिक लेख है और बंज्ञानिकोको विज्ञान विषयकी एक नई खोजकी तरफ प्रोत्साहित करताहै। श्रतः वैज्ञानिकोंको इस विषयपर गम्भीरताक माथ विचारकर उसके अनुसन्धानमें प्रगति प्रदान करना चाहिए और जैन विद्वानोंको भागमम साधक-बाधक प्रमाणोंको उपस्थिनकर अनुसन्धान कार्यमें सुगमता और ममीचीनता लानेका भरसक प्रयत्न करनाचाहिए। लेम्ब लोक-हितकी भावनाओंम प्रोत-प्रोत है और उसके प्रतिपाद्य-विषयकी वैज्ञानिक सफलता अथवा उसको विज्ञानका पूरा समर्थन मिलनेपर लोकमें जैनदर्शनको बहुत बदी ख्याति एवं प्रभावनाका होना अवश्यंभावी है । इस ओर बैज्ञानिकोंका ध्यान आकृष्ट करने और उन्हें पढ़ल-वर्गणाप्रोंक विशेष वर्णनादिसे सम्बन्ध रखनेपाली उपयुक्त सामग्री देनेकी खास जरूरत है। 'अनेकान्त' इस विषयकी सी मब माधन-सामग्री और उसपर किए गए विद्वानोंक विवेचनोंका स्वागत करेगा।
-सम्पादका प्रास्ताविक-आत्मा और पुद्गलक मंयुक्त शश्वत विकास होते होते जब यही जीव जघन्य रूपमे ही संसारमै जीवोंकी अवस्थिति है। आत्मा (परम सूक्ष्म निगोदिया) रूपसे निकालकर पूर (Sul) और पुद्गल (matter) का सम्बन्ध विकमित मन एवं बुद्धियुक्त मनुष्यका शरीर प्रानअनादि कालीन है । प्रात्मा जब तक मुक्त नहीं हो कर लेता है तब इसे अपने इस पुद्गल शरीरको जाता तब तक प्राय: पुद्गलमय ही रहता है। शुद्धकर अन्तमें इममे छुटकारा पाजानेकी पूर्ण आत्मा चेतन (जानने और अनुभव करने वाला) है संभावना एवं सुविधा प्राप्त होती है। और पुद्गल जड़, अचेतन है। इस शरीरधारी जीव- स्वतंत्र रूपसे तो आत्मा ईश्वर या सिडात्मा को मांसारिक अवस्थामें चसनमय पुद्गल या होकर ही पूर्ण शुद्ध रह सकता है अन्यथा हर हालतपुद्गलमय चेतन भी कहे तो कोई गलती नहीं। में यह जद या पुद्गल शरीर धारी ही होता है। जो