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________________ अनेकान्त [वर्ष १० कुछ हम संसारमें देखते, जानते, सुनते, ममझते, भान उतना आकर्षक न होनेसे या और दूसरे कुछ कारणों करते या विचार करते हैं वह सब आत्मा और पुद्- से उसके मानने वालोंकी संख्या बहुत कम हो गई गलको सृष्टि या रचनामात्र ही है । हम जो कुछ भी या रह गई है। जानदार देखते हैं वह आत्मा और पुद्गल (Soul अधिकतर लोग अपनी अज्ञानतामें नामके पीछे And matter) का ही मंयुक्तरूप है। आत्माकी ही जान देते हैं। विशेषकर वर्तमान संसारमें तो चेतनाके कारण उसकी चेतना है और जड़ पुद्गल- कुछ ऐसी ही परिपाटीकी प्रधानता सभी जगह सभी के कारण उसका बाह्य रूप । आत्माका यह सरूपी देशों तथा सभी लोगोंमें पाई जाती है। धर्मका नाम दर्शन या प्रत्यक्ष प्रमाण केवल मात्र उमके इस पुद्- कुछ भी रहे-जिसके समय-समयपर परिवर्तित होते गल या जड़के संयोग और आधारके कारणसे ही रहनेको कोई रोक नहीं सकता है- हमारा ध्यान तो मंभव है, अन्यथा आत्माका सब कुछ अदृश्य इस बातपर होना चाहिए कि वह धर्म क्या सिख(uvisible) एवं अचिन्तनीय ही था। फिर न तो लाता है और कहां पहुंचाता है। जैनधर्मका ही नाम संसार होता, न दर्शन, धर्म, न और कुछ । केबल यदि आज 'आत्मधर्म' या 'मानवधर्म' या और कुल पद्गलका ही रूप बनता बिगड़ता रहता-न कोई भी बदलकर रख दिया जाय तब भी उससे क्या जानने वाला होता न कुछ जाननेकी जरूरत ही रहतो, हानि ? यदि तत्त्वोंकी सनातन वैज्ञानिक एवं तकपर चूँ कि हमारे इस संसारमें यह आत्मा भी शामिल पूर्ण तथा बुद्धिगम्य विवेचनात्मक प्रामाणिकता है और हम सब जोवमात्र उसीके भिन्न भिन्न रूप है, सर्वदा सत्यके ऊपर ही अवलंबित रहे और उमीका जिसमें मनुष्य विशेष शक्तियोंसे सम्पन्न विवेचना- प्रतिपादन करे। युक्त होनेसे उसे यह जानना परम आवश्यक हो जाता हां, तो जैन धर्ममें वणित षद्रव्य, पंचास्तिहै कि यह सब क्या है, क्यों है और वह स्वयं क्या काय, सप्ततत्व और नवपदार्थीका यथानुरूप शद्ध है तथा इन सबोंसे उसका क्या सम्बन्ध है ? इनके निर्धारण एवं विशद व्याख्यान इतना ठीक, युक्तिसाथ रहना है या इनसे छुटकारा पाना है ? इत्यादि। युक्त एवं आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों और मा. और यदि छुटकारा पाना ही ध्यय है ता यह कम न्यताओं द्वारा अखंडित है कि इससे अधिक सत्यमंभव होगा? पर जब तक वह स्वयं अपनेको ठीक के मूल तक पहुंचाने वाला तथा वस्तुस्वरूपको अपने ठीक न जानले और अपने चारों तरफ फैले हुए असली मूल रूपमें दिखाने एवं निरूपित करनेमे विस्तृत इन सब वस्तुओं और बाकी जीवोंके बारेमें दूसरा कोई दर्शन समर्थ हुआ नहीं दीखता । भले भी ठीक जानकारी प्राप्त न करले तब तक वह जो ही बहुतोंने बहुत घुमा-फिराकर या बढ़ा-चढा कर कुछ भी छुटकारेका रास्ता, तरीका या उपाय निश्-ि बहुत सी बातें लोगोंको प्रभावित करनेके लिये कही चत करेगा वह प्रायः गलत ही होगा और पूरा कार- हों या अद्भुतताको पुट देकर आकर्षित करनेके गर नहीं हो सकता । बात कछ ऐसी ही प्रायः सभी लिये आडबरोंका सिलसिला खड़ा कर रखा हो, पर धर्मों और धर्मतत्त्वोंके साथ रही है। अनेक तरह की उससे क्या ? -असल सत्य तो आखिर सत्य मिथ्या भावनाओं, मान्यताओं और परिभाषाओं ही है, कोई उसे पावे या न पावे अथवा उस तक का क्यों इतना अधिक खुला प्रचार संसारमें होगया पहुंचे या न पहुंचे । जो कुछ भी हो, तत्त्वोंको ठीक उसके ऊपर मुझे यहां कुछ कहनेका न तो अवकाश ठीक जाननेके लिये और वस्तस्वरूपका पूर्ण निर्मल है और न कहना इष्ट ही है । मुझे तो यहां यह ज्ञान प्राप्त करनेके लिए यह आवश्यक है कि तर्क देखना है कि आखिर इन सब भ्रममाोंमें क्या कहीं और दर्शनके हर तरीकोंको देखा जाय और वस्तु की कोई सच्चा, ठीक सही मार्ग भी छिपा हुआ है, जो या किसी तत्त्वकी परीक्षा सभी दर्शनों एवं विचारों
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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